Book Title: Ratnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Author(s): Umedchand Raichand Master
Publisher: Umedchand Raichand Master

View full book text
Previous | Next

Page 174
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रत्नाकर शतक १३१ जाग्रत करनेवाले स्तोत्रों का पाठ करना निर्वाण भूमियों की वंदना करना, शास्त्र स्वाध्याय करना कल्याण के साधन हैं। धनमं धान्यमनूटमं वनितेयं वंगारमं वस्त्र वाहनराजादिगळं सदा वयसुवी भ्रांतात्मरा पटियोळ । जिनरं सिद्धरनार्यवर्यरनुपाध्यायर्कळं साधुपा वनरं चिंतिसि मुक्तिगे कोदगरो ! रत्नाकराधीश्वरा ! ॥१६।। हे रत्न कराधीश्वर! भ्रान्ति में पड़ा हुआ आत्मा धन, भोजन, स्त्री, सोना, वस्त्र, वैभव, राज्य इत्यादि वस्तुओं के चिन्तन में मन न लगा पवित्र जिनेश्वर, सिद्ध श्राचार्य, उपाध्याय, सर्व साधु का चिन्तन कर मोक्ष को क्यों नहीं प्राप्त हो जाता? ॥ ११ ॥ विवेचन----यह आत्मा मिथ्यात्व के कारण संसार के बन्धन में अनादिकाल से जकड़ा हुआ है, इसने अपने से भिन्न परपदार्थों को अपना समझ लिया है, इससे भ्रान्त बुद्धि आ गयी है। जिस क्षण यह श्रात्मा धन, सोना, वस्त्र आदि जड़ पदार्थों को अपने से पर समझ लेता है, सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जाती है। धन पुद्गल है, इसका चेतन अात्मा से कोई सम्बन्ध नहीं। कर्माच्छादित आत्मा भी जब इस शरीर में आता है तो अपने साथ किसी भी प्रकार का परिग्रह नहीं लाता। उसके पास एक पैसा For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195