Book Title: Ratnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Author(s): Umedchand Raichand Master
Publisher: Umedchand Raichand Master

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Page 177
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३४ विस्तृत विवेचन सहित हैं, जिससे यह आत्मा अनादिकाल से कर्मों को अर्जित करती आ रही है। कों की एक मोटी तह आत्मा के ऊपर आकर मट गयी है जिससे यह आत्मा विकृत हो गयी है। इस मोटी तह का नाम कार्माण शरीर है, इसी में मनुष्य द्वारा किये गये समम्त पूर्व कर्मों के फल देने की शक्ति वर्तमान है। भूख मनुष्य को इसी शरीर के कारण मालम होती है, यह भख वास्तव में न आत्मा को लगती और न जड़ शरीर को; बल्कि यह कार्माण शरीर के कारण उत्पन्न होती है। भोजन करनेवाली भी आत्मा नहीं है, बल्कि भोजन करनेवाला शरीर है। कर्म जन्य होने के कारण उसे कर्म का विपाक मानना चाहिये। भोजन जड़ है, इससे जड़ शरीर की ही पुष्टि होती है, चेतन अात्मा को उससे कुछ भी लाभ नह ॥ यह भूख तो कर्म के उदय, उपशम से लगती है। ___ जब भोजन, वस्त्र, सोना, चाँदी प्रात्मा के स्वरूप नहीं, उनसे आत्मा का सम्बन्ध भी नहीं, फिर इनसे मोह क्यों ? यों तो कार्माण शरीर भी आत्मा का नहीं है, और न प्रात्मा में किसी भी प्रकार का विकार है, यह सदा चिदानन्द स्वरूप अखण्ड ज्ञानपिण्ड है। यह कर्म करके भी कर्मों से नहीं बन्धता है। व्यवहार नय से For Private And Personal Use Only

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