Book Title: Ratnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Author(s): Umedchand Raichand Master
Publisher: Umedchand Raichand Master
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रत्नाकर शतक
ये वास्तविक धर्म नहीं हैं। क्योंकि सभी प्रकार का राग अधर्म है; चाहे शुभ राग हो या अशुभ राग कर्मबन्ध ही करेगा। तथा राग परणति भी हेय है।
परसम्बन्ध और क्षणिक पुण्य-पाप के भाव से रहित अक्षय सुख के भाण्डार आत्मा की प्रतीति करना ही धर्म है। धर्मात्मा या ज्ञानी जीव को पराश्रय रहित अपने स्वाधीन स्वभाव की पहले प्रतीति करनी होती है, पश्चात् जैसा स्वभाव है उस रूप होने के लिये अपने स्वभाव में देखना होता है। यदि कोई शुभाशुभ भाव आजाय तो उसे अपना अधर्म समझ छोड़ना चाहिये। परवस्तु और देहादि की क्रियाएँ सब पररूप हैं, ये आत्मरूप नहीं हो सकतीं। पुण्य-पाप का अनुभव दुःख है, आकुलता है, क्षणिक विकार है। आत्मा का धर्म सर्वदा अविकारी है, धर्मरूप होने के लिये आत्मा को पर की आवश्यकता नहीं। पर से भिन्न अपने स्वभाव की श्रद्धा न होने से धर्मात्मा स्वयं ही ज्ञानरूप में परिणत होता है, उसे कोई भी संयोग अधर्मात्मा या अज्ञानी नहीं बना सकता है।
जैसे पुद्गल की स्वर्णरूप अवस्था का स्वभाव कीचड़ आदि पर पदार्थों के संयोग होने पर भी मलिन नहीं होता, उसी प्रकार आत्मा का धर्म ज्ञान, बल, दर्शन और सुखरूप है, क्षणिक राग
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