Book Title: Ratnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Author(s): Umedchand Raichand Master
Publisher: Umedchand Raichand Master
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रत्नाकर शतक
एक चिथड़ा भी नहीं ले जा सकता है। अतएव श्रात्मकल्याण के कारण रत्नत्रय को धारण करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है।
कवि ने इस पद्य में मंगलाचरण भी प्रकारान्तर से कर दिया है। उसने अन्तरंग, बहिरंग लक्ष्मी के स्वामी, रत्नत्रय के धारी, तीर्थकर भगवान् को नमस्कार कर रत्नाकर शतक को बनाने का संकल्प किया है। इस रत्नाकर शतक में संसार में होनेवाले दुःखों से छुटकारा प्राप्त करने के साधन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का वर्णन किया जायगा, जिससे यह प्राणी अपना कल्याण भली प्रकार कर सकेगा।
तत्वं प्रीति मणक्के पुट्टलदुसम्यग्दर्शनंमत्तमा, तत्वार्थगळनोळदु भेदिपुदुसम्यग्ज्ञामा बोधदि । सत्वंगळकिडदंतुटोवि नडेयल्सम्यक्चारित्रं सुर
नत्वंमूरिवु मुक्तिगेंद रुपिदै ! रत्नाकराधीश्वरा ॥२॥ हे रत्नाकराधीश्वरा !
जीवादि तत्त्वों के प्रति मन में श्रद्धा का उत्पन्न होना सम्यग्दर्शन, उन तत्त्वों को प्रेम पूर्वक पृथक् पृथक जानना सम्यग्ज्ञान और उस ज्ञान से प्राणीमान की रक्षा करना सम्यक् चारित्र कहलाता है। आपने ऐसा समझाया है। जिस प्रकार रन का स्वामी किसी को रन देकर उस रस के स्वरूप का वर्णन कर देता है उसी प्रकार स्वीकार करने योग्य इस रत्नत्रय के आप अधिपति हैं; इन्हें देकर आपने इनके स्वरूप का वर्णन कर दिया है ॥२॥
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