Book Title: Ratnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Author(s): Umedchand Raichand Master
Publisher: Umedchand Raichand Master
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रत्नाकर शतक
है। वास्तविक विचार करने पर यह आत्मा शरीर से भिन्न प्रतीत होगा। इसके स्वरूप, गुण आदि आत्मा के स्वरूप गुण की अपेक्षा बिल्कुल भिन्न हैं, आत्मा जहाँ चेतन है, शरीर वहाँ अचेतन शरीर विनाशीक है, अात्मा नित्य है, शरीर अनित्य; अतः शरीर में सर्वत्र व्यापी आत्मा को समझ कर अपना आध्यात्मिक क्रमिक विकास करना चाहिये।
यदि भ्रम वश कोई व्यक्ति लकड़ी को अग्नि समझ ले, पत्थर को सोना मान ले, मलाई को घी मान ले तो उसका कार्य नहीं चल सकता है। इसी प्रकार यदि कोई शरीर को ही प्रात्मा मान ले तो वह भी अपना यथार्थ कार्य नहीं कर सकता है तथा यह प्रतिभास मिथ्या भी माना जायगा। हाँ, जैसे लड़की में अमि का अस्तित्व, पत्थर में सोने का अस्तित्व, फूल में सुगंध का अस्तित्व सदा वर्तमान रहता है उसी प्रकार संसारावस्था में शरीर में आत्मा का अस्तित्व रहता है। प्रबुद्ध साधक का कर्तव्य है कि वह शरीर में आत्मा के अस्तित्व के रहने पर भी, उससे भिन्न प्रात्मा को समझे। शरीर को अनित्य, क्षणध्वंसी समझ कर संसार में सुख, आनन्द, ज्ञान, दर्शन, रूप आत्मा ही उपादेय है; अतएव लोभ, मोह, माया, मान, क्रोध आदि विकारों को तथा वासनाओं को छोड़ना चाहिये।
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