Book Title: Ratnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Author(s): Umedchand Raichand Master
Publisher: Umedchand Raichand Master
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रत्नाकर शंतक
मन की शुद्धता केवल ध्यान की शुद्धता को ही नहीं करती है, किन्तु जीवों के कर्म-जाल को भी काटती है। जिसका मन स्थिर हो कर आत्मा में लीन हो जाता है, वह परमात्मपद को अवश्य प्राप्त हो जाता है। मन को स्थिर करने के लिये ध्यान ही साधन है। ___ जैन-दर्शन में ध्यान के चार भेद कहे गये हैं-आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान। इनमें से पहले के दो ध्यान पापास्रव का कारण होने से अप्रशस्त हैं तथा आगेवाले दो ध्यान कर्म नष्ट करने में समर्थ होने के कारण प्रशस्त हैं। आत. ध्यान के चार भेद हैं। दुःखावस्था को प्राप्त जीव का जो ध्यान (चिन्तन) है, उसको आतध्यान कहते हैं । अनिष्ट पदार्थों के संयोग हो जाने पर उस अर्थ को दूर करने के लिये बार-बार विचार करना अनिष्टसंयोग नाम का आर्तध्यान है। स्त्री, पुत्र, धन, धान्य यादि इष्ट पदार्थों के नष्ट हो जाने पर उनकी प्राप्ति के लिये बार-बार विचारना इष्टवियोग नाम का दूसरा आर्तध्यान है। रोगादि के होने पर उसको दूर करने के लिये बार-बार विचार करना सो बेदनाजन्य तृतीय आध्यान है। रोग के होने पर अधोर हो जाना, यह रोग मुझे बहुत कष्ट दे रहा है इसका नाश कर होगा, इस प्रकार सना रोगजन्य दुःख का विचार करते रहना तीसरा
For Private And Personal Use Only