Book Title: Ratnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Author(s): Umedchand Raichand Master
Publisher: Umedchand Raichand Master
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इसका, वीतराग, चिदानन्द, अखण्ड श्रमूर्त्तिक, सम्यकश्रद्धान ज्ञान, अनुभव रूप अभेद रत्नत्रय, लक्षण बताया है । मनोगुि श्रादि तीन गुप्ति रूप समाधि में लीन निश्चयनय से नि आत्मा ही निश्चय सम्यत्त्व है, अन्य सब व्यवहार है । अत आत्मा ही ध्यान करने योग्य है। जैसे दाख चन्दन, इलायची, बादाम आदि पदार्थों से बनायी गयी ठंढाई अनेक रस रूप है, फि भी भेदन की अपेक्षा से एक ठंढाई ही कहलाती है, इसी प्रकार शुद्धात्मानुभूति स्वरूप निश्चय सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रादि अनेक भावों से परिणत हुआ आत्मा अनेक रूप है, तो भी अभेदनय की विवक्षा से आत्मा एक है।
रत्नाकर शतक
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निर्मल आत्मा का ध्यान करने से ही अन्तमुहूर्त में निर्वाणपद की प्राप्ति हो जाती है। जब समस्त शुभाशुभ विकल्पसंकल्पों को छोड़ आत्मा निर्विकल्पक समाधि में लीन हो जाता है, तो समस्त कर्मों की श्रृंखला टूट जाती है। यद्यपि इस पंचम काल में शुक्ल ध्यान की प्राप्ति नहीं हो सकती है, फिर भी धर्म ध्यान के द्वारा आत्मा को शुद्ध किया जा सकता हैं । ध्यान का वास्तविक अर्थ यही है कि समस्त चिन्ताओं, संकल्प-विकल्पों को रोक कर मन को स्थिर करना; आत्म स्वरूप का चिन्तन करते हुए पुद्गल द्रव्य से आत्मा को भिन्न विचारना और आत्म स्वरूप में
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