Book Title: Ratnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Author(s): Umedchand Raichand Master
Publisher: Umedchand Raichand Master

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Page 125
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ८२ www.kobatirth.org रत्नाकर शतक Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुष्टि के लिये शास्त्रों में एक उदाहरण आता है, जिसे यहाँ उद्घृत कर उक्त विषय का स्पष्टीकरण करने की चेष्टा की जाती है। एक दिन एक श्रद्धालु शिष्य गुरु के पास दीक्षा ग्रहण करने के लिये आया । गुरुने उससे कहा कि मैं आपको तभी दीक्षा दूँगा, जब आप संसार की सबसे पवित्र वस्तु ले आओगे । शिष्य गुरु के आदेश को ग्रहण कर अपवित्र वस्तुओं की तलाश में चला। उसने अपने इस कार्य के लिये एक मित्र से सहायता ली । सर्व प्रथम वे दोनों बाजार में जहाँ शराब और मांस बिकते थे, गये; पर वे वस्तुएँ भी उन्हें अपवित्र न जँची । अनेक खरीदने वाले उन्हें खरीद खरीद कर अपने घर ले जा रहे थे । वे दोनों बहुत विचार-विनिमय के पश्चात् टट्टी घर में गये और मनुष्य का मल लेने लगे । मल ग्रहण करते ही दीक्षा ग्रहण करनेवाले शिष्य के मन में विचार आया कि यह तो सबसे पवित्र नहीं है । मनुष्य जो सुन्दर-सुन्दर सुस्वादु भोजन ग्रहण करता है, जो कि संसार में पवित्र, भक्ष्य, सुगन्धित माने जाते हैं, यह उन्हीं का रूपान्तर है । इस शरीर के स्पर्श और संयोग होने से ही उन सुन्दर दिव्य पदार्थों का यह रूप हो गया है ! अतः जिस शरीर में इतनी बड़ी अपवित्रता है कि जिसके संयोग For Private And Personal Use Only

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