Book Title: Ratnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Author(s): Umedchand Raichand Master
Publisher: Umedchand Raichand Master
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रत्नाकर शतक
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भूल जाने से ही श्रात्मा को कष्ट है । यह मानी हुई बात है कि जबतक कोई भी व्यक्ति परवस्तु को अपनी मानता है, तबतक वह परवस्तु के ह्रास, विनाश, विकास में दुखी, सुखी होता है । किन्तु जिस क्षण उसे यह मालूम हो जाता है कि यह वस्तु मेरी नहीं है, उसी क्षण उसका विषाद नष्ट हो जाता है । अतः आत्मदृष्टि प्राप्त हो जाने का सीधा साधा अर्थ यही है कि अपने को अपने रूप में और पर को पर रूप में समझें । द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय के ग्रहण करने योग्य जो रूपादि विषय हैं, उन्हें परवस्तु समझ कर त्याग देना और निज शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न परमानन्द रूप अतीन्द्रिय सुख के रस का अनुभव करना यही साधक का कर्तव्य है । ध्यान लगाकर आत्मा का चिन्तन करने से पूर्व श्रानन्द की प्राप्ति होती है ।
बिसिलि कंदद बेंकियं सुडद नीरं नांददुग्रासि भेदिसलुं वारद चिन्मयं मरेदु तन्नोळपं परध्यानदि || पसिबिंदी बहुबाधेयिं रुजेगळ केडागुवीमैयूगेसंदिसि तनने चितिसल्सुखियला ! रत्नाकरा धीश्वरा ||८|| tarnaatree !
धूप से कभी निस्तेज न होनेवाला श्रमि से भस्म न होनेवाला, वामी से कभी fana न हो सकने वाला, ती तलवार से न कटने
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