Book Title: Ratnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Author(s): Umedchand Raichand Master
Publisher: Umedchand Raichand Master
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रत्नाकर शतक
चारित्र या तेजस्वरूप; अतिशयवाला कर्मबद्ध होकर अपने स्वरूप में स्थित अनन्त शक्ति, अनन्त सुख आदि गुणों का धारी तथा विषय की आसक्ति रहित है। आपने ऐसा समझाया ॥७॥
विवेचन---आत्मा संकोच विस्तारकी शक्ति के कारण समस्त शरीर में है। यह जिस प्रकार के छोटे-बड़े शरीर में पहुँचता है, उतना ही बड़ा हो जाता है। जब यह हाथी के शरीर में पहुँचता है, तो हाथी के शरीर के बराबर हो जाता है । जब चींटी के शरीर में पहुँचता है तो चींटी के शरीर के बराबर हो जाता है। अतः जिस प्रकार शरीर विकसित होता जाता है, वैसे
आत्म-प्रदेश भी विकसित होते जाते हैं। बच्चा जब छोटा रहता है तो आत्मा के प्रदेश उसके उस छोटे से शरीर में व्याप्त रहते हैं पर जब वही बच्चा बड़ा हो जाता है तो आत्मा के प्रदेश विकसित होकर उसके बड़े शरीर के प्रमाण हो जाते हैं।
आत्म-प्रदेश शरीर के किसी एक हिस्से में नहीं हैं, किन्तु समस्त शरीर में हैं। कुछ दार्शनिक आत्मा को वट-बीज समान लघु मानते हैं तथा वे कहते हैं कि इस आत्मा की गति बड़ी तेजी से होती है जिससे शरीर के जिस हिस्से में सुख-दुःख के अनुभव करने की आवश्यकता होती है, वहाँ यह पहुँच जाता है। हर एक क्षण यह आत्मा घूमता रहता है, एक क्षण के लिये भी इसे
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