Book Title: Ratnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Author(s): Umedchand Raichand Master
Publisher: Umedchand Raichand Master
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विवेचन विस्तृत सहित
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परस्पर में असम्बद्ध हैं। दोनों में तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है । संयोग
जब आत्मा
सम्बन्ध है । जो कभी भी दूर किया जा सकता है । 1 मोह, क्षोभ के कारणीभूत इस शरीर को अपने से भिन्न मानने लगता है, तो निश्चय छूट जाता है ।
मिया मोह से मोहित आत्मा जबतक अपने को नहीं पहचानता है, तबतक कर्मबद्ध रहता है तथा कषाय और विकार रूपी चोर मधन को चुराते रहते हैं । किन्तु जब यह आत्मा सजग हो जाता है तो चोर अपने श्राप भाग जाते हैं। आत्माधीन जितना सुख है वही वास्तविक है। पराधीन जितना सुख है, वह सब दुःखरूप है, अतः सुख को आत्माधीन करना चाहिये । भेर विज्ञानी आत्मा को सदा सजग, अमोही, निर्विकारी, शुद्ध, बुद्ध,
अखण्ड, अविनाशी समझता है।
अमोदलागि नेत्तिवरेगं सर्वांग संपूर्ण नु
तुंगज्ञानमयं सुदर्शनमयं चारित्र तेजोमयं ॥
मांगल्यं महिमं स्वयंभु सुखि निर्वाधं निरापेक्षि निमंगबोपरमात्मनेंद रुपिदै ! रत्नाकराधीश्वरा ॥७॥
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taraराधीश्वर !
चरण के अंगूठे से लेकर मस्तिष्क तक शरीर के प्रत्येक अवयव में परमात्मा विद्यमान है । वह ज्ञान - सम्यग्ज्ञान,
सम्यग्दर्शन सम्यक् -