Book Title: Ratnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Author(s): Umedchand Raichand Master
Publisher: Umedchand Raichand Master
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विस्तृत विवेचन सहित
__ जब जीव शरीर को ही आत्मा मान लेता है तो वह मृत्यु पर्यन्त भी भोगों से निवृत्ति नहीं होता; कविवर भर्तृहरि ने अपने वैराग्य शतक में बताया है
निवृत्ता भोगेच्छा पुरुषबहुमानो विगलितः समाना: स्वर्याताः सपदि सुहृदो जीवितसमाः । शर्यष्टयोत्लान घनतिमिररुद्धे च नयने
अहो धृष्टः कायस्तदपि मरणापायचकितः ।। अर्थ-बुढ़ापे के कारण भोग भोगने की इच्छा नहीं रहती है, मान भी घट गया है, बराबरीवाले चल बसे-मृत्यु को प्राप्त हो गये हैं, जो घनिष्ट मित्र अवशेष रह गये हैं वे भी अब बुड्ढे हो गये हैं। बिना लकड़ी के चला भी नहीं जा सकता, आँखों के सामने अन्धेरा छा जाता है। इतना सब होने पर भी हमारा शरीर कितना निर्लज्ज है कि अपनी मृत्यु की बात सुनकर चौंक पड़ता है । विषय भोगने की वांछा अब भी शेष है, तृष्णा अनन्त है, जिससे दिनरात सिर्फ मनसूबे बांधने में व्यतीत होते हैं। __ यह जीवन विचित्र है, इसमें तनिक भी सुख नहीं। बाल्यावस्था खेलते-खेलते बिता दी, युवावस्था तरुणी नारी के साथ विषयों में गवाँ दी और वृद्धावस्था आने पर आंख, कान, नाक आदि इन्द्रियाँ बेकाम हो गयी हैं। जिससे घर बाहर का कोई भी आदर नहीं
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