Book Title: Ratnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Author(s): Umedchand Raichand Master
Publisher: Umedchand Raichand Master
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रत्नाकर शतक
करता है, बुढ़ापे के कारण चला भी नही जाता है। इस प्रकार की असमर्थ अवस्था में आत्मकल्याण की ओर प्रवृत्ति करना कठिन हो जाता है। शरीर में रहते हुए भी आत्मा को शरीर से भिन्न समझ उसे पृथक् शुद्ध रूप में लाने का प्रयत्न करना प्रत्येक मानव का कर्तव्य है। जैसे अशुद्ध, मलिन सोने को आग में तपा कर सोहागा डालने से शुद्ध किया जाता है, उसी प्रकार इस अशुद्ध आत्मा को भी त्याग और तप के द्वारा निर्मल किया जा सकता है। जो प्राणो यह समझ लेता है कि विषय भोग और वासनाएँ
आत्मा की मलिनता को बढ़ाने वाली हैं वह इनका त्याग अवश्य करता है। यह जाव अनादिकाल से इन विषयों का सेवन करता चला आ रहा है, पर इनसे तनिक भी तृप्ति नहीं हुई; क्योंकि मोह और लोभ के कारण यह अपने रूप को भूले हुए हैं । कविवर दौलतरामजी ने कहा है।
मोह-महामद पियो अनादि । भूल जापको भरमत वादि ।। अर्थ--संसारी जीव मोह के वश में होकर मनुष्य, देव, तियंच
और नरक गति में जन्म-मरण के दुःख उठा रहे हैं, इन्हें अपने स्वरूप का यथार्थ परिज्ञान नहीं। अतः विषय भोगों से विरक्त होने का प्रयत्न करना चाहिये।
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