Book Title: Ratnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Author(s): Umedchand Raichand Master
Publisher: Umedchand Raichand Master
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रत्नाकर शतक
के अनुसार पुद्गल द्रव्य में परिणमन होता है और वह आत्मा के कार्माण-वासनामय सूक्ष्म कर्म शरीर में आकर मिल जाता है। इस प्रकार कर्मों से रागादि भाव और रागादि भावों से कर्मों की उत्पत्ति होती है। ___ सारांश यह है कि राग-द्वष, मोह, विकार, वासना आदि का पुद्गल कर्मबन्ध की धारा के साथ बीजवृक्ष की सन्तति के समान अनादि सम्बन्ध चला आ रहा है तथा जब तक इस कर्म सन्तान को तोड़ने का जीव प्रयत्न न करेगा यह सम्बन्ध चलता ही चला जायगा। क्योंकि पूर्वबद्ध कर्म के उदय से राग द्वेष, मोह,
आदि विकार उत्पन्न होते हैं, इनमें अासक्ति या लगन हो जाने से नवीन कर्म बन्धते हैं। जो जीव अपने पुरुषार्थ द्वारा विकारों के उत्पन्न होने पर आसक्त नहीं होता अथवा विकारों को ही उत्पन्न करने वाले कर्म को उदय में आने के पहले ही नष्ट कर देता है, अवश्य छुट जाता है। पर जो कुछ भी पुरुषार्थ नहीं करता, कर्म के फन्दे में पड़कर उसके फल को सहता रहता है, वह अपना उद्धार नहीं कर सकता। कर्मों के उदय से विकारों का उत्पन्न होना स्वाभाविक है, पर पुरुषार्थी व्यक्ति उन विकारों के वश में नहीं होता, तथा उन्हें अपना विभाव रूप परिणमन समझ कर भिन्न समझता है।
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