Book Title: Ratnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Author(s): Umedchand Raichand Master
Publisher: Umedchand Raichand Master
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रत्नाकर शतक
संवर--आस्रव का रोकना संवर है। आस्रव मन, वचन और काय से होता है अतः मूलतः मन, वचन तथा काय की प्रवृत्ति को रोकना संवर है। चलना, फिरना, बोलना, आहार करना, मल-मूत्र विसर्जन करना आदि क्रियाएँ नहीं रुक सकती हैं इसलिये मन, वचन, और शरीर की उद्दण्ड प्रवृत्तियों को रोकना संवर है। संवर के गुप्ति के साथ समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषह जय और चारित्र भी हेतु बताये गये हैं। यह संवर मोक्ष का कारण है।
निर्जरा----कर्मों का झड़ना निर्जरा है। इसके दो भेद हैं, सविपाक और अविषाक। स्वाभाविक क्रम से प्रतिक्षण कर्मों का अपना फल देकर झड़ जाना सविषाक और तप आदि साधनों के द्वारा कर्मों को बलात् उदय में लाकर बिना फल दिये झड़ा देना
आवश्यक निजरा होती है। सविपाक निर्जरा हर क्षण प्रत्येक संसारी जीव के होती रहती है तथा नूतन कर्म भी बन्धते रहते हैं, पर अविपाक निर्जरा कम नाश में सहायक होती है। क्योंकि संवर द्वारा नवीन कर्मों का आना रुक जाने पर पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा हो जाने से क्रमशः मोक्ष की प्राप्ति होती है।
मोक्ष-समस्त कर्मों का छूट जाना मोक्ष है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अन्तराय और मोहनीय इन चार घातिया
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