Book Title: Ratnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Author(s): Umedchand Raichand Master
Publisher: Umedchand Raichand Master
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रत्नाकर शतक
बुद्धि के द्वारा जो विभिन्न व्यापार होते हैं, इन दोनों के व्यापारों का एकत्र ज्ञान करने के लिये जो प्रत्यभिज्ञा करनी पड़ती है, उसे कौन करता है तथा उस प्रत्यभिज्ञा द्वारा इन्द्रियों को तदनुकूल दिशा कौन दिखलाता है। इन सारे कार्यों को करनेवाला मनुष्य का जड़ शरीर तो हो नहीं सकता; क्योंकि जब शरीर की चेतन क्रिया नष्ट हो जाती है, अत्मा शरीर से निकल जाता है, उस समय शरीर के रह जाने पर भी उपर्युक्त कार्य नहीं होते हैं ।
कल जिसने कार्य किया था, आज भी वही मैं कार्य कर रहा हूँ, इस प्रकार का प्रत्यभिज्ञान जड़ शरीर से उत्पन्न नहीं हो सकता; क्योंकि जड़ शरीर में प्रत्यभिज्ञान उत्पन्न करने की शक्ति नहीं। यह प्रत्यभिज्ञान की शक्ति शरीराधिष्ठित देनन श्रात्मा के मानने पर ही सिद्ध हो सकती है। प्रतिक्षण 'त्येक कार्य में 'मैं' या 'अहं' भाव की उत्पत्ति भी इस बात की साक्षी है कि शरीर से भिन्न कोई चेतन पढाथ भी है जो सदा 'अहं' का अनुभव करता रहता है। संभवतः कुछ भौतिकवादी यहाँ यह प्रश्न कर सकते हैं कि हृदय, बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ, और शरीर इनक समुदाय का नाम ही 'अहं' या 'मैं' है; इनके समुदाय से निन्न कोई 'अहं या मैं नहीं। पर विचार करने पर यह गलत मालूम होगा; क्योंकि किसी मशीन के भिन्न भिन्न कल पुर्जी के एकत्रित करने
For Private And Personal Use Only