Book Title: Ratnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Author(s): Umedchand Raichand Master
Publisher: Umedchand Raichand Master
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रत्नाकर शतक
को ये भोग विलास काले साँप के समान भयंकर प्रतीत होते हैं। राग के कारण यह जीव शरीर को ही सब कुछ समझता है, किन्तु राग के नष्ट होने पर शरीर से स्तः नि हो जाती है तथा शरीर को आत्मो से भिन्न समझने लगता है जिससे पाप, अत्याचार और अनीति आदि कार्य करना बिल्कुल बन्द कर देता है। राग के कारगा ही यह जीव दुनिया के झठे नाते, रिश्ते और रीति रिवाजों को सत्य मानता है, पर राग के दूर होने पर दुनिया का खेल
आंखों के सामने प्रत्यक्ष दिखलायी पड़ने लगता है । रागी (मोही) विरागी (निर्मोही) के विचार में बड़ा भारी अन्तर है; भंटा (बैगन) किसी को पथ्य होता है किसी को अपथ्य ।
अतएव जीव तत्त्व और अजीवतत्त्व के स्वरूप और उसके सम्बन्ध को जानकर प्रत्येक भव्य को अपनी आत्मा का कल्याण करने की ओर प्रवृत्त होना चाहिये। आगे के तत्त्वों में आस्रव
और बन्ध तत्त्व संसार के कारण हैं तथा संवर और निर्जरा मोक्ष के।
आस्रव--कर्मों के आने के द्वार को पासव कहते हैं । श्रात्मा में मन, वचन और शरीर की क्रिया द्वारा स्पन्दन होता है, जिससे कर्म परमाणु आते हैं, इस आने का नाम ही आस्रव है। अथवा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन
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