Book Title: Ratnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Author(s): Umedchand Raichand Master
Publisher: Umedchand Raichand Master
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विस्तृत विवेचन सहित
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बन्ध के कारणों को आस्रव कहते हैं। प्रास्रव के मूल दो भेद हैं-भावानव और द्रध्यास्रव । जिन भावों द्वारा कर्मों का आस्रव होता है उन्हें भावास्रव और जो कर्म आते हैं उन्हें द्रव्यास्रव कहते हैं । कर्मों का आना और उनका आत्म प्रदेशों तक पहुँचना द्रव्यास्रव है। भावास्रव के ५७ भेद हैं.-५ मिथ्यात्व १२ अविरति १५. प्रमाद २५ कषाय ।
मिथ्यादृष्टि जीव अपने यात्मस्वरूप को भूल कर शरीर आदि परद्रव्यों में आत्मबुद्धि करता है, जिससे उसके समस्त विचार
और क्रियाएँ शरीराश्रित होती हैं। वह स्वपर विवेक से रहित होकर लोक मूढ़ताओं को धर्म समझता है। वासना और कषायों को पूर्ण करने के लिये अपने जीवन को व्यर्थ खो देता है। ज्ञान, शरीर, बन्न, वैभव, आदि का घमंड कर मदोन्मत्त हो जाता है, जिससे इस मिथ्यादृष्टि जीव के संक्लेशमय परिणामों के रहने के कारण अशुभ आस्रव होता है। प्रत्येक प्रात्मकल्याण के इच्छुक जीव को इस मिथ्यात्व अवस्था का त्याग करना आवश्यक है। गिथ्यात्व के लगे रहने से जीव शराबी के समान
आत्मकल्याण से विमुख रहता है। अतएव आत्मतत्त्व की दृढ़ श्रद्धा करने पर ही जीव कल्याणकारी रास्ते पर आगे कदम बढ़ा सकता है।
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