Book Title: Ratnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Author(s): Umedchand Raichand Master
Publisher: Umedchand Raichand Master
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रत्नाकर शतक
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आगम में सम्यग्दर्शन के व्यवहार और निश्चय ये दो भेद ‘बताये हैं। जीव, अजीव, प्रास्रव, बन्ध संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वों का विपरीताभिनिवेश रहित और प्रमाणनयादि के विचार सहित श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है। इन सात तत्त्वों का उपदेश करनेवाले सच्चे देव, सच्चे शास्त्र एवं सच्चे गुरु का तीन मूढ़ता और आठ मद से रहित श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है। इसके तीन भेद हैं- उपशमसम्यत्त्व, क्षायिक सम्यत्त्व और क्षायोपशमिक सम्यत्त्व ।
उपशमसम्यत्त्व'-मिथ्यादृष्टि जीव के दर्शन मोहनीय कर्म की एक या तीन; अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन पाँच या सात प्रकृतियों के उपशम से जो तत्त्व श्रद्धान उत्पन्न होता है उसे उपशम सम्यत्त्व कहते हैं। सीधे साधे शब्दों में यों कहा जा
१-जीवाजीवादीनां तत्वार्थानां सदैव कर्त्तव्यम् । श्रद्धानं विपरीताभिनिवेश विविक्तमात्मरूपं तत् ॥ -पु० सि० श्लो० २२
२–श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् । त्रिमूढापोढमष्टांगं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥ -२० श्रा० श्लो. ४ ____ ३-अनन्तानुबंधिनः कषायाः क्रोधमानमायालोमाश्चत्वारः चारित्रमोहस्य मिथ्यात्व-सम्यमिथ्यात्व-सम्यत्त्वानि त्रीणि दर्शनमोहस्य । श्रासां सप्तानां प्रकृतिनामुपशमादौपशमिकं सम्यत्वमिति ।
सास्वार्थ रा०२-३
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