Book Title: Ratnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Author(s): Umedchand Raichand Master
Publisher: Umedchand Raichand Master
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रत्नाकर शतक
श्री राग सिरि-गंपुमाले मणिहारं वस्त्रमंगक्कलंकारं हेयमिवात्मतत्वरुचिवोधोद्यच्चरित्रंगळी ॥ त्रैरत्नं मनसिंगे सिंगरमुपादेयंगळेंदित्ते शृं
गार श्रीकविहंसराजनोडेया रत्नाकराधीश्वरा ॥१॥ हे रत्नाकराधीश्वर !
सुगन्ध युक्त लेपन द्रव्य, परिमल युक्त पुष्पों की माला, बहुमूल्य रत्नों का हार तथा नाना प्रकार के वस्त्राभूषण केवल शरीर के अलंकार हैं; इसलिये वे सर्वथा त्याज्य हैं। प्रात्म स्वरूप के प्रति श्रद्धा, उत्कृष्ट ज्ञान
और चारित्र ये तीन रत्न आत्मा के अलंकार हैं। इसलिये ये तीनों रत्न स्वीकार के योग्य हैं और ऐसा समझ कर ही आपने मुझे इन रत्नों को दिया है।
विवेचन--- मोह के उदय से यह जीव भोग-विलास से प्रेम करता है, संसार के पदार्थ इसे प्रिये लगते हैं। नाना प्रकार के सुन्दर वस्त्राभूषण, अलंकार, पुष्पमाला आदि से यह अपने को सजाता है, शरीर को सुन्दर बनाने की चेष्टा करता है, तैलमर्दन, उबटन, साबुन आदि सुन्धित पदार्थों द्वारा शरीर को स्वच्छ करता है; वस्तुतः ये क्रियाएँ मिथ्या हैं। यह शरीर इतना अपवित्र है कि
* इस ग्रन्थ में प्रत्येक पद्य के अन्त में "रत्नाकराधीश्वर" पद अाया है जिसके तीन अर्थ हो सकते हैं- १) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र जैसे रत्नों के स्वामी,(२) समुदाधिपति और (३)रत्नाकर स्वामी-जिनेन्द्र प्रभु।
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