Book Title: Ratnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Author(s): Umedchand Raichand Master
Publisher: Umedchand Raichand Master
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रत्नाकर शतक
भर्तृहरि आदि शतक निर्माताओं की शैली मे भिन्न है। इसमें भगवान् की स्तुति करते हुए आत्मतत्त्व का निरूपण किया है ।
जिस प्रकार शारीरिक बल के लिये व्यायाम की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार आत्मिक शक्ति के विकास के लिये भावों का व्यायाम अपेक्षित है। शान्तरस के परिपाक के लिये तो भावनाओं की उत्पत्ति, उनका चैतन्यंश, उनकी विकृति एवं स्वाभाविक रूप में परिणति की प्रक्रिया विशेष आवश्यक है, इनके विश्लेषण के बिना शान्तरस का परिपाक हो ही नहीं सकता है। मुक्तक पद्यों में पूर्वापर सम्बन्ध का निर्वाह अन्विति रक्षामात्र के लिये ही होता है। कवि रत्नाकर ने अपनी भावधारा को एक स्वाभाविक तथा निश्चित क्रम से प्रवाहित कर अन्विति को रक्षा पूर्ण रीति से की है। अतः मुक्तकपद्यों में धुंधली आत्म-भावना के दर्शन न हो कर ज्ञाता, द्रष्टा, शाश्वत, निष्कलंक, शुद्ध, बुद्ध आत्मा का साक्षात्कार होता है। कवि के काव्य का केन्द्रबिन्दु चिरन्तन, अनुपम एवं अक्षय सुख-प्राप्ति ही है, यह रत्नत्रय की उपलब्धि होने पर
आत्मस्वरूप में परिणत हो वृत्ताकार बन जाता है। __इस शतक की भाषा संस्कृत मिश्रित पुरातन कन्ड़ है। इसमें कुछ शब्द अपभ्रंश और प्राकृत के भी मिश्रित है। कवि ने इन शब्द रूपों को कन्नड़ की विभक्तियों को जोड़कर अपने कनुकून ही बना लिया है। ध्वनि परिवर्तन के नियमों का कवि ने संस्कृत से
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