Book Title: Rajasthan ke Jain Shastra Bhandaronki Granth Soochi Part 3
Author(s): Kasturchand Kasliwal, Anupchand
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur
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चरित्र एवं काव्य ]
[ २१५
भ्रता जगम से सुजन सुखदाय । नाने कन्नू अतर समझि सीखी पाय सहाय ॥६॥ तिस पुर मभ्य जिन भवन इक राजत अधिक उदार । मध्य लस जिन वृषभ सुर नर बंदित पद सार ॥॥ तहा जात दिन रेन पुझिगडू अभ्यास । तम लखि कै मुचरित्र इह रची वचनका तास ।। ८ ।। होय दोस यामैं जहाँ अमिसत प्रहर होय । सोधौ ताकू मुघद नर निज लक्षामा थम लोय ॥ ६ ॥ संत सदा अन दुर्जन है औगण लेय । सुख ते तिष्टी मूमि पार मो पर कृपा करेग ।। १० ॥ बुद्धहीन तैं मूलत्रत यर्थ भयो नहीं होय । सा परि सजन पुरुष मो क्षमा करो गुम जोय ॥ ११ ॥ पर सोधी वर बोर ते बखि अवर विनास । यह मेरी अरजी शुभग धरौ चित्त गुह रासि ॥ १२ ॥ अधिक कहे किम होत है जे है संत पुमान । ते भोरे ही कहन हैं समझि लेत र यान ॥ १३ ॥ नर सुर पति बदत चरण करन हरन गुन पूर । पर दरसत भजन करै धर्म रूप विधि चूर ॥ १४ ॥ जो जिनेश इन गुग्ग सहित सो बंदू सिर नाय । सोलु दहा मंगल करन हरन विघ्न प्रधिकाय ॥ १५ ॥ श्रावण मुदि निम त रविवार अर्थ रस जानि । मद ससि संवत्सर विौ मयौ मय सुख खानि ।। १६ ॥ चर थिर चवाति जीवत निति होहु पुखी जगमान । रो विधन दुच रोष सब वधी धर्म भगवान ॥ १८ ॥
- अनुष्ट्याभद्रमामुनेरेतत् चरित्र प्रति दर्शता । भाषा मयं कृतं पारामेश मंदभुद्धिना ॥ १४ ॥
-सोरठातस्य दोष परित्यज्य अहं तु गुन सन्जन। यथा दृष्यौपि सौरभ्यं ददाति चंदनोवणं ॥ २१ ॥