Book Title: Rajasthan ke Jain Shastra Bhandaronki Granth Soochi Part 3
Author(s): Kasturchand Kasliwal, Anupchand
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur
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रस एवं अलंकार शास्त्र ]
कंडु कीया नहि इश्क का इस्तमाल संदर स्रो साहिब हूँ इसक हैं करिश के गंवार ॥
अन्तिम — जिरव जदम जारी जहां नित लोहू का कोच । नागर धासिक लुट रहे इस्क चिमन के बीच || ४ | चले तेज नागर इफ है हरफ तेज की धार ।
और करें नहीं बार सौ कह करें रिवार ||४५||
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४७१. कविकुल कंठाभरण - दूलह पत्र संख्या ११६० भाषा-हिन्दी विषयन नं० ४७२ ।
पूर्ण
संकर शास्त्र रचना काल-लेखन का
प्रारम्भात शिवचरन में कवि दूलह करि प्रीति । धीरे कम कम तें कहे धकार की रीति ||१|| चरन वरन लखन खलित रजिरी पर्यो करता त्रिन न नहि मूबई कविता वनिता चारु ॥२॥ दोष मत सत कविन के अस्था से लघु तरन । कवि दूलह याते कियौ कविकुलकंठामरन ॥३॥ जो यह कंठाभरन को कंठ करें हुल पाई। सभामध्य सोमा लहै थलरुवी ठहराई ॥ ना चंद्रादिक उपमान है वदनादिक उपमेय । तुम्प अरब बाचक कहै धर्म एक सो ले | मग प्रस्तुत करने प्रससा लिए प्रस्तुत की। पंचधा अप्रस्तुत प्रसंसा होति चाहे ते ॥ पच्छिन मैं याही तें बड़ी है राजहंस | एक सदा नीर कीर के विवेक श्रवगाह ते ॥ प्रस्तुत में प्रस्तुत को घोलन हाई होइ
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प्रस्तुत अंकुर तहाँ वरमी है। फुली रस रली भली मालती समीप तें यी कर कली कोकले सुदेव का है ||३२||
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अन्तिम सूरता उदारता की अदभुत वस्नन । विध्यारुप यति उक्ति भाषै सब लोग है | दानि के जाचक हुवे कमरे