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तो फिरक
आत्मा मूलत : शुद्ध हैं :
भारतीय-दर्शन का एक शाश्वत विचार चला आ रहा है--"मुलतः आत्मा, शुद्ध, बुद्ध, निर्मल और निर्विकार है। वहीं ईश्वर या परमात्मा है । उसे कहीं भी विकारी, पापी या दोषों से लिप्त नहीं कहा गया है।" प्रश्न होता है-'जब प्रात्मा एकदम निर्मल स्वरूप
काम, क्रोध, लोभ, मात्सर्य, अहंकार आदि दुर्गणों के कीडे कहाँ से आ ग?" ये सब वैभाविक परिणतियाँ है। शुद्ध प्रात्म-स्वरूप की दृष्टि से प्रात्मा इनसे परे है। जैन-दर्शन के महान् आचार्य नेमिचन्द्र ने 'द्रव्य-संग्रह' में कहा है--
"मग्गण-गुणठाणेहि, चउदहि तह हवन्ति असुद्धनया।
विनेया संसारी, सब्वे सुद्धा हु सुद्धनया ॥" जब-जब जीवों के भेदों की गिनती करता हूँ, एकेन्द्रिय-बेइन्द्रिय आदि तथा मन वाले और विना मन वाले--इन भेदों की ओर जब जाता है, तो तीर्थकर तक भी अशुद्ध ही प्रतीत होते हैं। जहाँ पर मोक्ष में केवल पल भर की ही देरी हो, वहाँ की स्थिति में भी अशुद्धि ही दृष्टि गोचर होती है। गुणठाणों की दृष्टि वहाँ भी चलती है और एक से चौदह गुणस्थान तक अर्थात् मोक्ष से पूर्व तक की स्थिति अशुद्ध ही प्रतीत होती है। वहाँ तक सभी संसारी जीव हैं। और, जो संसारी हैं, वे सब वद्ध हैं। और, बद्धता का अर्थ है---कर्म का आत्मा के साथ सम्पर्क। जब तक कर्म आत्मा के साथ चिपके हुए हैं, तब तक आत्मा पूर्ण मुक्त नहीं, पूर्ण शुद्ध नहीं। और, इस दृष्टि से भी यह यथार्थ प्रतीत होता है कि यदि अशुद्धता नहीं, तो गुणस्थान कहाँ टिकेंगे। गुणस्थानों का श्रेणी-विभाजन आत्मा की ऋमिक विशुद्धि के आधार पर ही किया गया है। यदि चौदहवें गुणस्थान को छोड़ने से पहले पूर्ण शुद्धि हो गई, तो फिर गुणस्थान की कोई सीमा नहीं रही। अतः चौदहवें गुणस्थान वालों को भो मुक्त होना बाकी रहता है। इस प्रकार अशुद्धनम से, यानि संसार के प्रपंचों, भाव-विभावों, भावमन के उछल-कूद के आधार पर देखें, तो कहीं दर्शन मोह, कहीं चारित्र मोह, काही ज्ञानावरण, कहीं दर्शनावरण आदि का खेल देखने को मिलेगा और उससे भी परे वीतराग-सर्वज्ञ अवस्था में भी वेदनीय, नाम, गोल और आयु कर्म का।
इसी उपर्युक्त स्थिति को यदि हम शुद्ध-नय की दृष्टि से देखने का प्रयत्न करें, तो सभी विकल्पों, विभावों और प्रपंचों से परे हमें शद्ध-निर्मल आत्मा के दर्शन होंगे। एकेन्द्रिय निगोद से लेकर पञ्चेन्द्रिय आदि समस्त चेतना-जगत् में शुद्ध प्रात्म-तत्त्व की अमर ज्योति स्थित है, पापी, दुराचारी और परमाधार्मिक तथा नरक की अग्नि में जलने वाले नैरयिकों में भी आत्मा का शुद्ध रूप परिलक्षित होता है। भगवान् महावीर ने कहा है--"प्रत्येक प्राणी में आत्मा की अनन्त शक्ति एवं अमित उज्ज्वलता छिपी है ।" इसलिए उन्होंने कहा--"इस मुलदृष्टि से सब आत्माएँ एक समान हैं, स्वरूप की दृष्टि से सब एक हैं-- "एगे पाया"
---स्थानांग सूत्र, प्रथम स्थान --संग्रह-नय तथा मल-स्वरूप की भाषा में 'आत्मा, एक है।' ___इसी दृष्टि से मन्त्र-द्रष्टा वैदिक ऋषियों ने यह उद्घोष किया--
"एक सद् वित्रा बहुधा वदन्ति" -'सत्' आत्मा एक ही है। शुद्धि, शान्ति, सामर्थ्य आदि गुण की अपेक्षा से संसार की कोई प्रात्मा एक-दूसरे से भिन्न नहीं है। यह आत्मा का शुद्ध रूप देखने का दृष्टिकोण है।
यही प्रश्न सन्त तुलसीदासजी ने 'रामचरित मानस' की आदि में मंगलाचरण में ही उठाया है--"नमस्कार किसको करें ? ब्रह्मा, विष्णु, महेश और विभिन्न सम्प्रदायों के अनेकानेक देवताओं में से किसको चुनें और किसको छोड़ें? और, जब बाहर से हटकर
पन्ना समिक्खए धम्म
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