________________
688888
-29:9:999:99:9:99:
8666666880
Beeg s
श्रीः ।
समर्पणः ।
स्याद्वाद वाराधि, वादिगजकेशरी, न्यायवाचस्पतिश्रीमान् पं० गोपालदासजी ।
99999
गुरुवर !
जैन समाज में तो आप सर्वमान्य मुकुट थे ही, पर अन्य विद्वत्समाजमें भी आपका प्रतिभामय प्रखर पाण्डित्य प्रख्यात था। आपके उद्देश्य बहुत उदार थे, परन्तु सामायिक प्रगति के समान धार्मिक सीमाके कभी बाहर न हुए। जैसे अर्किचिनताने आपका साथ नहीं छोड़ा वैसे ही स्वावलम्बन और निरीहताका साथ आपने भी कभी नहीं छोड़ा।
ऐसे समय में जब कि उच्चतम कोटिके सिद्धान्त ग्रंथोंके पठन पाठनका मार्ग रुका हुआ था, आपने अपने असीम पौरुषसे उन ग्रंथोंके मर्मी १५-२० गण्य मान्य विद्वान् तैयार कर दिये, इतना ही नहीं; किन्तु न्याय सिद्धान्त विज्ञताका प्रवाह बराबर चलता रहे इसके लिये मोरेनामें एक विशाल जैन सिद्धान्त विद्यालय भी स्थापित कर दिया, जिससे कि प्रतिवर्ष सिद्धान्तवेत्ता विद्वान् निकलते रहते हैं । जैनधर्मकी वास्तविक उन्नतिका मूल कारण यह आपकी कृति जैन समाज हृदय मन्दिरपर सदा अंकित रहेगी ।
SECEEEEEEEEEF
Jain Education International
पञ्चाध्यायी एक अपूर्व सिद्धान्त प्रन्थ होनेपर भी बहुत कालसे लुप्त प्राय था, xx आपने ही अपने शिष्योंको पढ़ाकर इसका प्रसार किया। कभी २ इसके आधार पर अनेक तात्विक गम्भीर भाषणोंसे श्रोतृ समाजको भी इस ग्रन्थके अमृतमय रससे तृप्त किया । पूज्यपाद ! आपके प्रसादसे उपलब्ध हुए इस ग्रंथकी आपके आदेशानुसार की हुई यह टीका आज आपके ही कर कमलोंमें टीकाकार द्वारा सादर - सप्रेम - सविनय समर्पित की जाती है । यदि आपके समक्ष ही इसके समर्पणका सौभाग्य मुझे प्राप्त होता तो आपको भी इस बालकृति से सन्तोष होता और मुझे आपकी हार्दिक समालोचना से विशेष अनुभव तथा परम हर्ष होता, परन्तु लिखते हुए हृदय विदीर्ण होता है कि इस अनुवादकी समाप्ति के
पहले ही आप स्वर्गीय रत्न बन गये । आपके इस असमय स्वर्गारोहणसे प्रतीत होता है कि आपको अपनी निष्काम कृतिका फल देखना अमीष्ट नहीं था । अन्यथा कुछ काल और ठहरकर आप अपने शिष्यवर्गका अनुभव बढ़ाते हुए उसकी कार्य परिणति से निज कृतिकी सफलता पर सन्तुष्ट होते ।
आपका प्रिय शिष्य ---
मक्खनलाल शास्त्री ।
১9%১১:১9:১
3888888888
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org