Book Title: Panch Parmeshthi Mimansa
Author(s): Surekhashreeji
Publisher: Vichakshan Smruti Prakashan

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Page 14
________________ (11) सके तो विदेहावस्था को प्राप्त नहीं हो सकते। चाहे जीवन के अन्तिम समय में ही क्यों न हो पर जीवन्मुक्त होना आवश्यक है। ___ जैन परम्परा में इन जीवनमुक्त का अर्हत्, तीर्थंकर, सयोगीकेवली स्वरूप वर्णन किया है। बौद्ध परम्परा में ये जीवन्मुक्त अर्हत्, सुगत या लोकोत्तर सत्त्व के रूप में जाने जाते हैं। जिसका विशद वर्णन सिद्ध पद में किया गया है। न्याय और योग परम्परा में भी जीवन्मुक्त का अस्तित्व स्वीकार करते हुए उन्हें चरमदेह, केवली, कुशल' आदि विशेषणों से विभूषित किया है। सामान्यतया रामानुज, मध्व, आदि वैष्णव परम्परा के अतिरिक्त सभी आध्यात्मिक परम्पराओं में जीवन्मुक्त का अस्तित्व स्वीकार किया है। विदेहमुक्त विदेहमुक्त होने पर जीवात्मा का स्वरूप और उसकी स्थिति कैसी होती है? इस विषय में दार्शनिकों की भिन्न 2 मान्यताएँ हैं / जो कि परस्पर विरुद्ध भी हैं, तो साम्यता लिये हुए भी हैं, जो कि निम्न हैं 1. उच्छेदवादी-देह के साथ ही चैतन्य के अस्तित्व का लोप हो जाता है, यह मान्यता अपुनर्जन्मवादी उच्छेदवादी की है। 2. शाश्वतवादी-जो कि देहनाश के पश्चात् भी चैतन्य का किसी न किसी रूप में अस्तित्व स्वीकार करते हैं, वे शाश्वतवादी हैं। शाश्वत का तात्पर्य है, जो तत्त्व हमेशा रहे, कभी उसका उच्छेद न हो। शाश्वत के अर्थ में नित्य, ध्रुव, कूटस्थ आदि शब्द प्रयुक्त होते हैं। इस नित्यता के पारमार्थिक स्वरूप के विषय में तत्त्वचिन्तकों में कई प्रश्न उद्भूत हुए 1. निरन्तर अर्थात् जो सतत विद्यमान होने पर भी उसमें कुछ परिवर्तन न आवे वह? अथवा 2. जिसका सतत अस्तित्व होने पर भी स्वभू शक्ति से और बाह्य निमित्त से सजातीय या विजातीय किसी भी प्रकार का परिवर्तन या परिणाम का अनुभव करे वह। इस प्रकार शाश्वत या निरंतर तत्त्व के स्वरूप के विषय में ये दो प्रश्न थे। कोई अपरिवर्तिष्णु शाश्वत तत्त्व को मानते, तो कोई परिवर्तिष्णु शाश्वत तत्त्व को 1. न्यायभाष्य 4.2.1., न्यायभाष्य 4.1.64 2. योगसूत्रभाध्य 2.4. 27.

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