Book Title: Panch Parmeshthi Mimansa
Author(s): Surekhashreeji
Publisher: Vichakshan Smruti Prakashan

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Page 12
________________ (9) यद्यपि बौद्ध परम्परा में विदेह मुक्त चित्त अर्थात् निर्वाण प्राप्त चित्त का स्पष्ट और सर्वमान्य वर्णन सम्प्राप्त नहीं होता। बौद्ध परम्परा में यह स्थिति अव्याकृत कही गई है। फिर भी यह तो सर्वसम्मत है कि लोकोत्तर स्थिति को प्राप्त सत्त्व जो सर्वथा वासना-बंधन या संयोजना से मुक्त हो, विशुद्ध स्वरूप प्राप्त है वह अर्हत्, सुगत या परमात्मा है। __ सारांश यह है कि न्याय वैशेषिक आदि कितनीक परम्पराएँ एक स्वतंत्र कर्ता और नीतिनियामक के रूप में परमात्मा स्वीकार करती है। योग एवं सेश्वर सांख्यादि परम्परा मात्र साक्षीरूप में परमात्मा को मान्य करते हैं। इधर कैवलाद्वैत जैसी परम्परा भिन्न कर्ता, नियामक और साक्षीरूप एक परमात्मा को न मानकर तद्भिन्न एक सच्चिदानन्द ब्रह्मतत्त्व को परमात्मा कहती है। जबकि जैन-बौद्ध परम्परा में इन सब से भिन्न अनेक पारमार्थिक शक्ति स्वरूप परमात्मा को स्वीकार किया गया है। जीवात्मा और परमात्मा का संबंध ___ उपलब्ध भारतीय वाङ्मय के तत्त्वचिन्तन की प्रवाहित धारा में विकासक्रम की ओर दृष्टि करें तो विदित होता है कि ऋग्वेद के महत्त्वपूर्ण कितनेक सूक्तों में जो तत्त्वचिन्तन है, वह गूढ़, गहरा और आकर्षक होने के बावजूद भी उसमें आध्यात्मिक साधना का या परमतत्त्व के साथ जीवात्मा के संबंध का मार्मिक प्रश्न उद्भवित ही नहीं हुआ। ब्राह्मणग्रंथों में तत्त्वचिन्तन तो है, परन्तु वह यज्ञयागादि कर्मकाण्ड के स्वरूप और उससे ऐहिक-पारलौकिक लाभों की कामना में ही सीमित रह गया। उपनिषदों के तत्त्वचिन्तन में आधिभौतिक या आधिदैविक विषयक चर्चा तो हुई है, परन्तु वह आध्यात्मिक भूमिका की पृष्ठभूमि के रूप में हुई है। इसी से उपनिषदों का तत्त्वचिन्तन जीवात्मा और परमात्मा के संबंध को मुख्य रूप से स्पर्श करता है। इधर जैन और बौद्ध वाङ्मय के तत्त्वचिन्तन की नींव ही आध्यात्मिक भूमिका पर स्थिर हुई है। अतः जीवात्मा और परमात्मा का संबंध का उल्लेख भी इनके ही सन्दर्भ में किया जा सकेगा। प्रत्येक जीवात्मा में या चेतन में एक ऐसी अकल दिव्यशक्ति है जो न स्थूल इंद्रियगम्य है न स्थूल मनोगम्य है। किन्तु वह है, इतना ही नहीं बल्कि वह स्पंदमान और प्रगतिशील है। यह प्रतीति मानवदेहधारी चेतन की जागृति से १.दीघनिकाय पोट्टपाद सुत्त 26-27-55 217-8, मज्झि निकाय, चूलमालुंक्य सुत्त, पृ.९५ बम्बई

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