________________ (7) हा परम्पराओं में इसने पुरुषोत्तम, वासुदेव या नारायण नाम से स्थान प्राप्त किया है। सेश्वर सांख्य या योगशास्त्र में पुरुषविशेष या ईश्वर नाम धारण किया है। यह पुरुष विशेष कर्ता या न्यायदाता मिटकर मात्र साक्षीरूप से व्यवहृत हुआ है, जो कि कूटस्थनित्यता की मान्यता के साथ संगत है। ___परन्तु ऋग्वेद के कुछेक सूत्रों में एवं उपनिषद के कुछ अंशों में साथ ही शंकराचार्य जैसे प्रौढ़ आचार्यों ने इस मान्यता में अद्भुत विकास किया है। इस मान्यता के अनुसार जीव और जगत् से भिन्न किसी परमात्म तत्त्व के अतिरिक्त सर्वत्र व्याप्त एक सच्चिदानंदस्वरूप परब्रह्म ही वास्तविक है। यही अंतिम सत्य है। यह अखंड परब्रह्म की मान्यता देश-काल के भेद से भी परे है, जो कि जीवात्माओं के परस्पर पृथक्करण और भिन्नत्व पर आधारित नहीं है। इस प्रकार ऋग्वेद में उल्लिखित निसर्गपूजा अनेकदेववाद, क्रमप्रधानदेववाद, एकदेववाद और अंत में परब्रह्मवाद में विराम लेती है। एकेश्वरवाद और परब्रह्मवाद इन दोनों वादों में ही आज सभी वैदिक दर्शनों का समावेश हो जाता है। श्रमण परम्परा जैन और बौद्ध परम्परा मूल रूप से वैदिक वाङ्मय को अन्तिम प्रमाण रूप से स्वीकारती ही नहीं बल्कि वैदिक वाङ्मय से निरपेक्ष अपना मन्तव्य प्रस्तुत करती है। यहाँ जीव, जगत् और परमात्मा विषयक चिन्तन और मत भिन्न और स्वतन्त्र वैचारिक भूमिका पर स्थिर हुए हैं। ___ वैदिक वाङ्मय और वेदावलम्बी दर्शनों में देव या अनेक देव प्रधान पद का भोग करते हैं और वे सृष्टिकर्ता, विश्वकर्मा अथवा प्रजापति होते हैं, जो कि वरुण या अन्य नाम से प्राणियों के सुकृत-दुष्कृत के प्रेरक हो जाते हैं। जिनका कोई भी भक्त, उपासक, ज्ञानी, कर्मयोगी या कर्मकांडी मनुष्य स्वाभाविक रूप से ही उनका किंकर या दास बनकर उनकी कृपा या अनुग्रह प्राप्त करना चाहता है। जैन और बौद्ध परम्परा में भी देवों का स्थान तो है, किन्तु ये सर्व देव-देवेन्द्र चाहे जितनी भौतिक विभूति, ऋद्धि समृद्धियुक्त हो, किन्तु उनकी अपेक्षा मनुष्य का स्थान उच्च है। इन दोनों परम्परा की एक ध्रुव मान्यता है कि बाह्य विभूति.और शारीरिक शक्ति की दृष्टि से मनुष्य देवों की अपेक्षा हीन है, किन्तु जब वह आध्यात्मिक पथ पर आरूढ़ हो जाता है, तब शक्तिशाली देव भी उसके किंकर हो जाते हैं। सृष्टिकर्ता एवं नीति नियामकता के रूप में देव के अस्तित्व को 1. दशवैकालिक, 1. 1.