Book Title: Panch Parmeshthi Mimansa
Author(s): Surekhashreeji
Publisher: Vichakshan Smruti Prakashan

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Page 8
________________ . (5) मूर्त पदार्थों की भांति प्रत्यक्ष न होने से अमूर्त पदार्थों का निषेध भी नहीं किया जा सकता। चूंकि आत्मा अमूर्त है फिर भी उसका अस्तित्व भी स्वयं-सिद्ध होता है। आधुनिक विज्ञान के माध्यम से भी अनेक तत्त्वों का प्रत्यक्ष नहीं हो पाया। फिर भी कार्यों के कारण अस्तित्व तो मानना ही पड़ता है। 'ईथर' जैसे तत्त्व का प्रत्यक्ष न होने पर भी उसके अस्तित्व का निषेध भी नहीं किया गया। इस प्रकार भारतीय चिन्तकों का चिन्तन आत्मा की स्वयंसिद्धि पर तथा उसकी अनिर्वचनीयता पर प्रमुख रूप से रहा है। जीव, आत्मा या चेतना की सत्ता का प्रश्न महत्त्वपूर्ण होने पर भी दार्शनिक क्षेत्र में विवादास्पद नहीं रहा। परमात्म स्वरूप : भिन्न 2 परम्पराओं में परमात्मा, परमेश्वर, परमब्रह्म या परमदेव शब्द से पूजित अथवा ध्यानउपासना करने में जो परमतत्त्व की मान्यता और जीवित कल्पनाएँ आज प्रचलित हैं, इस विचार-यात्रा में पहुंचने में मानव मानस ने हजारों वर्ष व्यतीत किये हैं। यद्यपि इस जटिल यात्रा का उल्लेख इतिहास में विस्तृत रूप से प्राप्त नहीं होता तथापि कहा जा सकता है कि ईश्वर या परमात्मा संबंधी ये विचार भेदद्रष्टि से प्रारम्भ होकर उत्तरोत्तर अभेददृष्टि की ओर गतिमान हुए हैं। भेददृष्टि में जीव और प्राकृतिक तत्त्वों का भेद, प्राकृतिक घटनाएँ और उन घटनाओं के प्रेरक देवों का भेद, अनेक देवताओं में परस्पर भेद और देव तथा परमदेव परमात्मा में भेद; इस प्रकार अनेकविध भेदों का समावेश होता है। जबकि अभेद-दृष्टि में प्राकृतिक दृश्य तथा प्राकृतिक घटनाएँ एवं उनके प्रेरक देवों के बीच भेद समाप्त होता जाता है, अनेक देवों के मध्य परस्पर भेद भी नहीं रहता और यहाँ तक कि अंत में जीव और परमात्मा के मध्य से भेदरेखा भी समाप्त हो जाती है। मानवीय मानस जितने अंश में अन्तर्मुख होता है, उतने अंश में उसकी अभेददृष्टि विकसित होती जाती है। जितना अधिक वह अन्तर्मुख होता है, उसमें अभेददृष्टि का विस्तार व विकास होता जाता है। और अन्त में जब पूर्णतः उर्ध्वमुख या सर्वतोमुख विकासभूमिका में प्रवेश करता है तब भेददृष्टि का पूर्णतया लोप हो जाता है, साथ ही अभेददृष्टि के नये नये शिखरों का स्पर्श करने लगता है। इस विकासयात्रा में मानव ने प्रथम देव को सर्जन का कर्ता मानकर पूजा की, पश्चात् उसमें कर्तृत्व एवं न्यायकर्ता की भावना उत्पन्न हुई अर्थात् देव सृष्टि का कर्ता है इतना ही नहीं परन्तु वह जीवों को न्यायमार्ग पर प्रेरित करके उनके सुकृत-दुष्कृत के अनुसार

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