Book Title: Panch Parmeshthi Mimansa Author(s): Surekhashreeji Publisher: Vichakshan Smruti Prakashan View full book textPage 7
________________ (4) द्वादशांगी के प्रथम अंग सूत्र 'आचारांग' में इस पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। इस तथ्य की प्रामाणिकता इसमें अस्तिवाद के चार अंगों की स्वीकृति के द्वारा होती है-'आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद'। इसी की पुष्टि 'सूत्रकृतांग'-द्वितीय अंग सूत्र में भी है-'लोक-अलोक, जीव-अजीव, धर्मअधर्म, बंध-मोक्ष, पुण्य-पाप, क्रिया-अक्रिया नहीं है, ऐसी संज्ञा मत रखो। किन्तु ये सब हैं, ऐसी संज्ञा रखो। स्पष्ट है कि आस्तिक दर्शनों की भित्ति-आत्मवाद पर अधिष्ठित है। इस आत्मवाद के प्रश्न को ही दर्शन की उत्पत्ति की पृष्ठभूमि कहें तो अनुचित न होगा। आचारंग सूत्र में कथन है, 'अनेक व्यक्ति यह नहीं जानते है कि मैं कहाँ से आया हूँ ? मेरा पुनर्जन्म होगा या नहीं ? मैं कौन हूँ ? यहाँ से फिर कहाँ जाऊँगा? यही जिज्ञासा दर्शन की जन्मदात्री है। धर्म/दर्शन का मूल आत्मा है। यदि आत्मा है तो वह है, नहीं तो नहीं। यही आत्मतत्त्व आस्तिकों का 'आत्मवाद' संज्ञा प्राप्त करता है। भारतीय दार्शनिक, पाश्चात्य दार्शनिक की भांति मात्र सत्य का ज्ञान ही नहीं चाहता, वह चाहता है मोक्ष / मैत्रेयी याज्ञवल्क्य से कहती है, जिससे मैं अमृत नहीं बनती, उसे लेकर क्या करूं? जो अमृतत्त्व का साधन हो, वही मुझे बताओ। इसी भांति कमलावती इक्षुकार को सावधान करती है, हे नरदेव! धर्म के सिवाय अन्य कोई भी वस्तु त्राण नहीं है। प्रस्तुत में मैत्रेयी अपने पति से मोक्ष के साधनभूत अध्यात्म ज्ञान की याचना करती है, तो कमलावती अपने पति को धर्म का महत्त्व बतलाती है। इस प्रकार धर्म की आत्मा में प्रविष्ट होकर वह आत्मवाद ही अध्यात्मवाद बन जाता है। यही स्वर उपनिषदों के ऋषियों की वाणी में से भी निकला, "आत्मा ही दर्शनीय, श्रवणीय, मननीय और ध्यान किये जाने योग्य है। ___ इस प्रकार दर्शन का प्रारम्भ आत्मा से होता है और उसका अन्त परमात्मपदसे। सत्य ज्ञान उसका शरीर है और इस सत्य का प्राकट्य उसकी आत्मा है। 1. आचा.१.१.५. 2. सूयगडो 2.5, 12-16 3. आचा. 1-1-1-1. 4. बृह. 2.4.30 5. उत्तरा. 14.40 ६.क बृहदारण्यक उप. २.४.५.,ख शुक्र रहस्य 3.13Page Navigation
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