Book Title: Panch Parmeshthi Mimansa
Author(s): Surekhashreeji
Publisher: Vichakshan Smruti Prakashan

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Page 5
________________ स्व-कथ्य ‘पंच परमेष्ठी' से तात्पर्य ही है- जैन धर्म एवं दर्शन / इन पंच पदों में ही जैन तत्त्व दर्शन समाया है। क्योंकि ये साधन भी है, साध्य भी। साधक का प्रथम चरण भी है, तो अंतिम सोपान भी है, मंजिल भी है। क्योंकि इनका स्मरण, शरण, समर्पण तद्मयता प्रदान करता है। यद्यपि इन पदों को नमस्कार प्रथम मंगलभूत माना गया, सर्वशास्त्रों का सार मान्य किया गया, तथापि इन पंच पदों को ग्रहण करना भी उपादेय स्वीकार किया गया। अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु- ये पंचपद सार्वभौम है,संप्रदायतीत है। इसमें किसी का नामाकन नहीं है। किसी व्यक्ति का उल्लेख नहीं वरन् ये व्यक्तित्व की गुणवत्ता पर आधारित है। इसमें गुणग्राह्यता है, मात्र गुणों का कथन नहीं है। प्रस्तुत शोध-प्रबंध इन्हीं पंच पदों के स्वरूप पर आधारित है। जैनदर्शन में ही इन पंच-पदों को स्वीकार किया है या अन्य दर्शनों ने यथा वेद, उपनिषद्, ब्राह्मण, आरण्यक, संहिता, स्मृति ग्रंथों ने वेदान्त, मीमांसा, सांख्य-योग, न्याय-वैशेषिक, बौद्ध, चार्वाक आदि आस्तिक, नास्तिक दर्शनों ने भी इन पदों को मान्य किया गया है। इस महानिबन्ध में इसका तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। देखा जाय तो वर्तमान समय में पंच परमेष्ठी पदों का जैन परम्परा में ही प्रचलन है, अन्य धर्म-दर्शनों में नहीं। जबकि वेदवादी ग्रंथों में, बौद्धदर्शन में इनका उल्लेख प्रचुरता से उपलब्ध होता है। यहाँ तक कि ‘परमेष्ठी' शब्द का शब्दतः उल्लेख जैन आगम ग्रन्थों में नहींवत् है, जबकि ब्राह्मण परम्परागत साहित्य में बहुलता से प्रयुक्त हुआ है। इसी प्रकार अर्हत् आदि पदों का भी उल्लेख सर्वत्र उपलब्ध होता है। तात्पर्य यही है कि ये पद सार्वभौम है। सर्वमान्य है। जैन धर्म-दर्शन में इन पदों का विश्लेषण गहनता से किया गया है। इसके गूढ़तम रहस्य का इस निबन्ध में दिग्दर्शन कराया गया है। नव अध्यायों में विभक्त यह निबन्ध प्रत्येक पद के हार्द को खोलने में सहायकभूत रहा है। अनेक वरदहस्तों का आशीर्वाद ही इसकी सम्पन्नता है। इस सुदीर्घकाल में अनेकों ने दिवगंतता को भी प्राप्त कर ली। आचार्य प्रवर श्री कैलाश सागर जी म.सा., उपाध्याय प्रवर श्री मणिप्रभ सागर जी म.सा. का शुभाशीष इसका संबल रहा है। प.पू. स्व. प्रवर्तिनी महोदया गुरुवर्या श्री विचक्षण श्रीजी की दिव्यकृपा इस कार्य की सफलता है। शासन ज्योति प.पू. मनोहर श्रीजी म.सा., प.पू. मुक्तिप्रभा श्रीजी म.सा. इसके प्रेरणास्रोत है। प.पू. महत्तरापद विभूषिता विनीता श्रीजी म.सा., प.पू. प्रव. श्री चंद्रप्रभा श्रीजी म.सा., प.पू. चन्द्रकला श्रीजी म.सा., प.पू. मणिप्रभा श्रीजी म.सा. का शुभाशीर्वाद सतत मिलता रहा है। मेरी गुरुभगिनियों का साथ इसकी गति रही है तथा प्रशमरसा श्रीजी एवं हेमरेखा श्रीजी ने पूर्ण सहयोग दिया है। विद्वद्वर्य स्व. दलसुख भाई मालवणिया, डॉ. एन.जे. शाह, डॉ. आर.एम. शाह, डा. वाय.एस. शास्त्री, सुश्री सलोनी जोशी, सुश्री पारूल बहन मांकड, पं. रूपेन्द्र भाई पगारिया, पं. सलोनी जोशी, सुश्री पारूल बहन मांकड, पं. रूपेन्द्र भाई पगारिया, पं. अमृतभाई पटेल आदि एवं ला.द. भारतीय संस्कृति विद्या मंदिर इस कार्य में पूर्ण सहभागी रहे हैं। श्राद्धवर्य उपकुलपति महोदय डॉ. एन.के. जैन, डॉ. श्रीमती कुसुम जी डांगी, डॉ. के.सी. सोगानी, श्री नवरतन श्रीश्रीमाल, श्री प्रकाश जी कोठारी, श्री निर्मलजी श्रीमाल, स्व. श्री दुलीचंद जी सा. टांक, स्व. श्री नरेन्द्र जी जैन, श्री अशोक जी फोफलिया, डॉ. बी.एल. जैन, श्री डी.सी. जैन आदि अनेकानेक महानुभाव साधुवाद के पात्र हैं, जिनके सद्भाव पूर्ण सहयोग से यह कार्य पूर्ण हुआ। अनेकानेक महानुभावों से उपकृत हूँ जिनका साथ मुझे समय-समय पर मिलता रहा है। श्री जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ संघ, जयपुर ने इसका प्रकाशन करवाकर जन-जन के ज्ञानार्जन में सहयोग दिया, अतः साधुवाद के पात्र हैं। इसका सुंदर मुद्रण कोटावाला प्रिन्टर्स एवं पब्लिशर्स प्रा.लि., जयपुर ने करके सबको लाभान्वित किया। ___ अंत में सभी से अभ्यर्थना कि इसका स्वाध्याय करके, ज्ञानार्जन में वृद्धि करके, पंचपद मय जीवनयापन करने का पुरुषार्थ करें। गुरु विचक्षण चरणरज सुरेखा श्री

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