________________ (10) हो जाती है। मनुष्य अपनी दिव्यशक्ति की अगम्य प्रेरणा से ही वर्तमान जीवन के बंधन के घेरे में से मुक्त होने का प्रयास ही नहीं करता वरन् उस स्थिति से विशेष और विशेष उर्ध्वगामी होने की आकांक्षा करता है। यदि ऐसी कोई दिव्यशक्ति की प्रेरणा या जागृति न हो तो मानव-मन ने स्व-स्वरूप के विषय में, जगत् के स्वरूप के विषय में शोध न करी होती और अकल्प्य परमात्म स्वरूप का आदर्श सन्मुख रखकर ऐषणा में से उद्भवित चिरपरिचित सुखों को त्यागने में परमानन्द न माना होता। मनुष्य ने ऐसी आध्यात्मिक प्रेरणा के कारण ही मोक्ष-पुरुषार्थ के साथ निष्कामता का अनिवार्य संबंध अनुभव किया और इसी मार्ग पर ही प्रस्थान किया। मनुष्य-साधकमनुष्य ने यह अनुभव किया कि परमात्मा के साथ उसका संबंध चाहे द्वैतकोटि का हो या अद्वैतकोटि का, परन्तु वह संबंध अर्थात् मुक्ति सिद्ध करने का अनिवार्य साधन निष्कामता या निष्कषायता ही है। कोई भी आध्यात्मिक परम्परा का ऐसा साधक एक भी नहीं कि जो परमात्म पद प्राप्त करने के लिये निष्कामता को अनिवार्य साधन न मानता हो। इस प्रकार जीवात्मा और परमात्मा के बीच के संबंध के प्रश्न से साधक ने मोक्ष का आदर्श पूर्ण किया और साथ ही उसने सर्वसम्मत साधन के रूप में निष्कामता को स्वीकार किया। मोक्ष का स्वरूप सामान्य रूप से मोक्ष या मुक्ति की दो अवस्थाएँ निरूपित की जाती रही हैं१. सदेह अवस्था - जीवन्मुक्ति 2. विदेह अवस्था - विदेहमुक्ति जीवन्मुक्ति देहधारी आत्मा में राग द्वेष और मोह की सर्वथा निवृत्ति सिद्ध होना जीवन्मुक्ति है। उनकी प्रवृत्ति देह संबंधित होती है। आवश्यक देह प्रवृत्ति करने पर भी रागद्वेष जन्य वृत्तियाँ एवं अज्ञान का लवलेश भी स्पर्श न होने से बंधनग्रस्त नहीं होते। उनका समग्र प्रवृत्तियाँ सहजता से कल्याणवह होती है और आयुष्य का परिपाक होते ही वे विदेहमुक्त हो जाते हैं। जीवन्मुक्त जैसा कि नाम से ही ज्ञात होता है-जीवित अवस्था में मुक्तावस्था। यह एक ऐसी अवस्था है जो विदेहावस्था की पूर्वावस्था तो है ही, किन्तु विदेहमुक्त होने से पूर्व अनिवार्य रूप से जीवन्मुक्त होना ही होता है। यदि जीवन दशा में राग, द्वेष, मोहादि दुष्प्रवृत्तियों से मुक्त न हो