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पद्मपुराणे
प्राचीन है परन्तु अन्तमें लिपिका संवत् और लिपिकारका कोई परिचय उपलब्ध नहीं है । ऐसा जान पड़ता है कि इस प्रतिके अन्तका एक पत्र गुम हो गया है अन्यथा उसमें लिपि संवत् वगैरहका उल्लेख मिल जाता । पुस्तककी जीर्णता के कारण प्रारम्भमें ४४ पत्र नये लिखकर लगाये गये हैं । इन ४४ पत्रोंमें प्रतिपत्रमें १३ पंक्ति और प्रतिपंक्ति में ४० से ४५ तक अक्षर हैं । प्राचीन पत्रोंमें १२ पंक्तियाँ और प्रतिपंक्ति में ३५ से ३८ तक अक्षर हैं । अधिकांश लिपि शुद्ध की गयी है । इस प्रतिमें भी 'ख' प्रतिके समान प्रारम्भके १-२ श्लोकोंकी संस्कृत टीका दी गयी है । इस प्रतिका सांकेतिक नाम 'ज' है ।
[४] 'ब' प्रतिका परिचय
यह पुस्तक पं. धन्नालाल ऋषभचन्द्र रामचन्द्र बम्बईकी है । इस पुस्तकमें १३x६ इंचकी साईज के २६५ पत्र हैं । प्रतिपत्र में १९ पंक्तियाँ और प्रतिपंक्ति में ५५ से ६० तक अक्षर हैं। लिपिके संवत् और लिपिकारका उल्लेख अप्राप्त | पर जान पड़ता है कि लिपिकर्ता संस्कृत भाषाका जानकार था इसलिए लिपि सम्बन्धी अशुद्धियाँ नहीं के बराबर हैं । प्रायः सब पाठ शुद्ध अंकित किये गये हैं । बीच-बीच में कठिन स्थलों पर टिप्पण भी दिये गये हैं । इस संस्करणके सम्पादन में इस पस्तक से अधिक सहायता प्राप्त हुई है । इसका सांकेतिक नाम 'ब' है ।
[५] टिप्पण प्रतिका परिचय
यह प्रति श्री दि. जैन सरस्वती भण्डार धर्मपुरा दिल्लीकी है। श्री पं. परमानन्दजी के सौजन्य से प्राप्त हुई है । यह टिप्पणकी प्रति है । इसमें १०५ इंचकी साईजके ५८ पत्र हैं । बहुत ही संक्षेप में पद्मचरित कठिन स्थलोंपर टिप्पण दिये गये हैं । इस पुस्तककी लिपि पौष वदी ५ रविवार संवत् १८९४ को पूर्ण हुई है । लश्कर में लिखी गयी है । किसने लिखी ? इसका उल्लेख नहीं है । इसकी रचना के विषय में अन्त में लिखा है
'लाट वागड़ श्री प्रवचन सेन पण्डितान् पद्मचरितं समाकर्ण्य बलात्कारगण श्रीनन्द्याचार्य सत्त्वशिष्येण श्रीचन्द्रमुनिना श्रीमद्विक्रमादित्य संवत्सरे सप्ताशीत्यधिकसहस्र ( परिमितं श्रीमद्धारायां श्रीमतो राज्ये भोजदेवस्य पद्मचरिते' ।
अर्थात् राजा भोजके राज्यकालमें संवत् १०८७ में धारानगरी में श्रीनन्दी आचार्यके शिष्य श्री चन्द्र मुनिने इस टिप्पणकी रचना की । लिपिकर्ताको असावधानीसे लिपि सम्बन्धी अशुद्धियाँ बहुत हैं । [६] 'म' प्रतिका परिचय
यह प्रति श्री दानवीर सेठ माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बई से श्री साहित्यरत्न पण्डित दरबारीलालजी न्यायतीर्थ ( स्वामी 'सत्यभक्त' वरधा) के द्वारा सम्पादित होकर तीन भागों में विक्रम संवत् १९८५ में प्रकाशित हुई है । इसका सम्पादन उक्त पण्डितजीने किन प्रतियोंके आधारपर किया यह पता नहीं चला पर अशुद्धियाँ अधिक रह गयी हैं । इसका सांकेतिक नाम 'म' है ।
इन प्रतियों के पाठभेद लेने तथा मिलान करनेपर भी जहाँ कहीं सन्देह दूर नहीं हुआ तो मूडबिद्री में स्थित ताड़पत्रीय प्रतिसे पं. के. भुजबली शास्त्री द्वारा उसका मिलान करवाया है। इस तरह यह संस्करण अनेक हस्तलिखित प्रतियोंसे मिलान कर सम्पादित किया गया है ।
संस्कृत साहित्य - सागर
संस्कृत साहित्य अगाध सागरके समान विशाल है। जिस प्रकार सागर के भीतर अनेक रत्न विद्यमान रहते हैं उसी प्रकार संस्कृत साहित्य - सागर के भीतर भी पुराण, काव्य, न्याय, धर्म, व्याकरण, नाटक,
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