Book Title: Nayvimarsh Dwatrinshika
Author(s): Sushilsuri
Publisher: Sushilsuri Jain Gyanmandir

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Page 11
________________ प्रर्थात् जितने वचन मार्ग हैं उतने ही नयवाद हैं अर्थात् नयात्मक वचन हैं। इस तरह जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय अर्थात् अन्यान्य मत हैं। नयों की संख्या अनंत होने पर भी महासमर्थ विद्वान् जैनाचार्यों ने शास्त्रों के प्रति चिन्तन और मनन के पश्चात् उन सभी नयों के विचार वृन्द का मात्र सात संख्या में समावेश किया है। ऐसा करके मानो उन्होंने गागर में सागर भरने की उक्ति को चरितार्थ किया है। वे सात नय हैं (१) नैगमनय, (२) संग्रहनय, (३) व्यवहारनय, (४) ऋजुसूत्रनय, (५) शब्दनय, (६) समभिरूढ़नय तथा (७) एवंभूतनय । (५) नय की उपयोगिता : नय की यह विशिष्टता है कि वह किसी भी पदार्थ (वस्तु) के एक पक्ष को लेकर यह नहीं कहता कि यह पदार्थ एकान्त से ऐसा ही है। वह तो 'ही' के स्थान में 'भी' का प्रयोग करता है। इस पदार्थ का स्वरूप ऐसा भी है । इस तरह न करे तो वह नय दुनय हो जाता है । यह न हो जाय इसलिये जब 'ही' विषमता का बीज वपन करती है तब 'भो' उस विषमता के बीज का उन्मूलन करती है, - दस -

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