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प्रकार की सातों नयों में भले ही सापेक्षता की दृष्टि से विभिन्नता हो किन्तु वे सब मिलकर ग्रागमों का ही प्रतिपादन करते हैं । जैनागम के प्रतिपादन में वह अपेक्षा कहीं विरोध को प्रगट नहीं करती, परन्तु मिलकर तो उसकी पुष्टि ही करती है ।
परस्पर विरोधी नय भी जब एकत्र सप्तनय हो जाते हैं तो जैनदर्शन रूपी न्यायप्रिय चक्रवर्ती एकान्त विरोध के कारण को हटाता हुआ विरोध दूर कर देता है तथा सम्यक्त्व की ओर ले जाता है || २२ ॥
[ २३ ] विभुश्रीवर्द्धमान जिनेन्द्रदेवाय समर्पणम्
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[ द्रुतविलम्बितवृत्तम् ] परिमळोपमभावसमन्वितैः, नयविमर्शवचः सुमनोऽक्षतैः । जिनवरं चरमं परमं प्रभु, विनयतोऽर्चति सूरि सुशील वै ॥२३॥
अन्वय :
'परिमलोपमभावसमन्वितैः नयविमर्शवचः सुमनोऽक्षतैः चरमं परमं जिनवरं प्रभु, सूरिसुशीलः वै विनयत प्रति इत्यन्वयः । '
नयविमर्शद्वात्रिंशिका - ६०