Book Title: Nayvimarsh Dwatrinshika
Author(s): Sushilsuri
Publisher: Sushilsuri Jain Gyanmandir

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Page 95
________________ (६) व्यवहारनयस्य स्पष्टीकरणम् [ उपजातिवृत्तम् ] वनस्पति त्वं त्वरितं गृहाण, प्रोक्तेऽपि गृहणाति न कोऽपि किञ्चित् । आमददस्वादि विशेषशब्दं, वदेन तावद्धि वृथा प्रयोगः ॥९॥ सरलार्थ ___ व्यवहारनय का स्पष्टीकरण _ 'तुम शीघ्र वनस्पति लामो ? या ग्रहण करो' ऐसा कहने पर कोई भी व्यक्ति चुप होकर स्थिर रहता है, कुछ भी नहीं लाता या ग्रहण करता है। किन्तु जब उसी व्यक्ति को यह कहा जाता है कि आप नीम या वटपत्र लामो तो वह शीघ्र ही ले पाता है, केवल सामान्य धर्म के प्रयोग से कार्य नहीं होता। अतः विशेषातिरिक्त सामान्य को यह नय नहीं मानता है ।।६।। (१०) [ उपजातिवृत्तम् ] व्रणे च पिण्डी चरणे प्रलेपः, नेजनं भोक्तमिदं फलञ्च । तस्तविशेषं कथयन् सदैव, सर्वत्र कार्य न समानधमः ॥१०॥ नयविमर्शद्वात्रिशिका-७४

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