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अर्थात् नहीं ला सकता है । नीम, प्राम, वट आदि वनस्पति से अलग नहीं हैं । जैसे हाथ में स्थित अंगुलि-नख आदि हाथ से भिन्न नहीं होते, उसी प्रकार सामान्य से अतिरिक्त विशेष की सत्ता नहीं मानी जाती है ॥७॥
व्यवहारनयस्वरूपदर्शनम्
[ उपजातिवृत्तम् ] विना विशेषं व्यवहारकार्य,
चलेन किञ्चिज्जगत्तीह हष्टम् । तस्माद् विशेषात्मकमेव वस्तु,
सामान्यमन्यत् खरशृगतुल्यम् ॥८॥ सरलार्थ--
व्यवहारनय का स्वरूप यह नय वस्तु में स्थित केवल विशेषधर्म को ही मानता है, क्योंकि विशेष के बिना केवल सामान्य धर्म से व्यवहारनय नहीं चलता है। संसार के व्यवहार तो तत् तद् विशेष धर्मों से ही चलते हैं। अतः विशेष धर्म के अलावा सामान्यधर्म गर्दभ के सींग की भाँति मिथ्या है, अर्थात् विशेष धर्म के अतिरिक्त सामान्य धर्म को मानना हास्यास्पद है ।।८।।
नयविमर्शद्वात्रिंशिका-७३