Book Title: Nayvimarsh Dwatrinshika
Author(s): Sushilsuri
Publisher: Sushilsuri Jain Gyanmandir

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Page 99
________________ ( १५ ) समभिरूढनयस्वरूपमाह- [ द्रुतविलम्बितवृत्तम् ] समभिरूढनयः प्रतिशब्दतः, कथयते पृथगर्थ विशेषताम् । कलश-कुम्भ-घटेषु न चैकता, भवति तेन विचार्य प्रयुज्यताम् ॥99॥ सरलार्थ समभिरूढ़नय का स्वरूप समभिरूढ़ नामक यह नय प्रत्येक पर्याय में भिन्न-भिन्न श्रर्थ मानता है । प्रत्येक शब्द में अपनी-अपनी व्युत्पत्ति के अनुसार कुछ विशेषता रहती है । अतः कोई भी दो शब्द समानार्थक नहीं होते । सबका अर्थ भिन्न ही होता है, समान नहीं होता । व्युत्पत्ति से कैसे भेद आता है सो व्याख्या में दिया गया है । वहाँ देखें ।। १५ ।। : ( १६ ) व्यतिरेकदृष्टान्तेनास्य पुष्टिकररणम् [ उपजातिवृत्तम् ] स्वकीयपर्यायपदे तदर्थ, न मन्यते भिन्नमहो तदा तु । घटे पटे क्वापि समस्य सर्वै-रापत्तिरित्यर्थ समानतायाः॥१६॥ नयविमर्शद्वात्रिशिका- -७८

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