Book Title: Nayvimarsh Dwatrinshika
Author(s): Sushilsuri
Publisher: Sushilsuri Jain Gyanmandir

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Page 102
________________ सरलार्थ- क्रमशः नयों का वैशिष्ट्य सातों नय क्रमशः (प्रथम से द्वितीय, द्वितीय से तृतीय इस प्रकार से ) विशिष्ट से विशिष्टतर हैं । प्रत्येक नय के एक-एक सौ भेद होते हैं । इस प्रकार से सात नयों के सात सौ भेद हैं, ऐसा समझना चाहिये || १६ | ( २० ) मतान्तरे नयानां पञ्चैवभेदा: [ उपजातिवृत्तम् ] शब्दान्नयाद् यौ परिवर्तिनौ स्तः, तौ शब्द अन्तर्भवतो मलेन । नयाsस्तु पञ्चैव तदात्मभेदैः, भवन्ति ते पञ्चशतीभिदोत्र ॥२०॥ सरलार्थ -- मतान्तर से नय के पाँच भेद शब्दय के बाद जो समभिरूढ़ और एवंभूत नय हैं उन दोनों का अन्तर्भाव शब्दनय में ही माना जाता है । इस प्रकार दूसरे मत में नयों के पाँच ही भेद माने गए हैं । पुनः प्रत्येक के अपने सौ-सौ भेद होने से कुल भेद पाँच सौ बनते हैं ।।२०।। नयविमर्शद्वात्रिशिका - ८१

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