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[ उपजातिवृत्तम् ]
विरोधवन्तोऽपि मिथो नयास्ते,
संभूय जैनं समयं भजन्ते ।
यथा च सेनाजन एकतानः,
युद्धाः जयं भूपतये ददाति ॥२२॥ .
सरलार्थ
सभी नय परस्पर मिलकर जिनागम की सेवा करते हैं, तद्विषयक स्पष्टीकरण
ये सातों नय परस्पर विरोधी होते हुए भी [ हे प्रभो ! ] एकत्र हो कर आपके जैन आगम की सेवा करते हैं । जैसे परस्पर विरोध रखने वाले राजा तथा राजसेना एकत्र होकर युद्ध - रचना में चक्रवर्ती की सेवा करते है वैसे ही ये नय भी जिनोक्त शासनमार्ग में बाधक नहीं बल्कि साधक ही हैं ।। २२ ।।
( २३ )
विभुश्रीवर्द्धमान जिनेन्द्राय समर्पणम्
[ द्रुतविलम्बितवृत्तम् ]
परिमलोपमभावसमन्वितैः, नयविमर्शवचः
सुमनोऽक्षतैः ।
*जिनवरं चरमं परमं प्रभु,
विनयतोऽर्च ति सूरिसुशील वै ॥२३॥
* श्रमणवीरविभुं जिनमन्तिमं
नयविमर्शद्वात्रिशिका-८३