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सव्वे समेंति सम्मं, चेगवसाश्रो नया विरुद्धा वि । मिच्च व्यवहारिणो इव, रानोदासीरणवसवत्ती ॥ [विशेषा. २२६७ ]
पद्यानुवाद :
[ उपजातिवृत्तम् ]
भले नृपों के नृप हो विरोधी, है पादसेवी इग चक्रवर्त्ती । तथैव सातों मिलके नयों भी, सेवा करे नाथ ! जिनागमों की ॥ २२ ॥
भावानुवाद :
जिस प्रकार परस्पर विरोध को धारण करने वाले राजा युद्ध के समय एकत्र होकर अपना निजी विरोध छोड़कर चक्रवर्ती राजा का ही अनुसरण करते हैं अर्थात् उसकी पुष्टि ही करते हैं; उसो प्रकार ये सातों नय भी एक दूसरे से विरोधी मन्तव्य रखते हुए भी मिलकर आपके शुभ आगमशास्त्रों की ही सेवा करते हैं । अर्थात् प्रापके प्रवचनजिनवाणी का समर्थन करते हैं ।
जैनदर्शन में विश्व की प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक स्वीकार की गई है । जो उन अनन्त धर्मों में से किसी एक धर्म का आश्रय लेकर उसका प्रतिपादन करती है और अन्य धर्मों के प्रति उदासीनता का भाव दर्शाती है, किन्तु इस
नयविमर्शद्वात्रिंशिका - ५६