Book Title: Nayvimarsh Dwatrinshika
Author(s): Sushilsuri
Publisher: Sushilsuri Jain Gyanmandir

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Page 62
________________ अर्थात्-पर्यायवाचक शब्दों में व्युत्पत्तिमूलक शब्दभेद की (प्रवृत्ति-निमित्तादिक द्वारा) कल्पना करने वाला नय समभिरूढ़ नय है । यथा 'कुम्भनात् कुम्भः' (कुत्सितार्थ से युक्त होने से कुम्भ है), 'कलनात् कलश:' (जल से शोभा प्राप्त करने वाला होने से कलश है) तथा 'घटनाद् घट:' (जलाहरणादि विशिष्ट चेष्टा करने वाला होने से) घट कहा जाता है । अर्थात् जैसे वाचक शब्द के भेद से घट तथा पट स्तम्भादि पदार्थ भिन्न हैं, उसी प्रकार प्रवृत्ति-निमित्तादि द्वारा, व्युत्पत्ति द्वारा कुम्भ, कलश, घट एक पर्याय होते हुए भी भिन्नार्थक हैं। इन्द्र, पुरन्दर, शक्र ये सभी एकार्थक एक पर्याय हैं; फिर भी व्युत्पत्ति से अर्थ में भिन्नता रखते हैं। "इन्दनात् इन्द्रः (ऐश्वर्यवाला होने से इन्द्र), पूर्दारणात् पुरन्दरः (दैत्यों के नगर का विनाश करने से पुरन्दर), शक्नात् शक्रः (शक्ति वाला होने से शक) कहलाता है।" ... इन्द्र, पुरन्दर और शक ये तीनों पर्यायवाची होते हुए भी व्युत्पत्तिभेद से भिन्न-भिन्न अर्थ को प्रतिपादित करते हैं। यही मन्तव्य समभिरूढ़ नय का है ॥१५॥ नयविमर्शद्वात्रिशिका-४१

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