Book Title: Nayvimarsh Dwatrinshika
Author(s): Sushilsuri
Publisher: Sushilsuri Jain Gyanmandir

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Page 74
________________ व्याख्या : शब्दात् शब्दनयात् परिवर्तनौ समभिरूढैवंभूतनयौ स्तः भवतः, तौ परिवर्तिनौ समभिरूढश्च एवंभूतश्च नयौ अन्तः शब्दनये समाविशेताम् चेत् मतेन मतान्तरेण अन्तर्भावात्मभेदैः : नयाः पञ्च एव भवन्ति नैगम-सङ्ग्रह - व्यवहार-ऋजुसूत्र-शब्दनयसङ्ख्यकाः पञ्चनयाः एव भवन्ति, ते पञ्चनया: मूलस्वरूपैः पञ्चशती पञ्चशतानि संख्याषु भवन्ति वा विस्तार्यन्ते । अत्र मतान्तरस्यार्थः प्रप्येतद् श्रन्य श्रीजिनभद्रगरिणक्षमाश्रमरणादिभिः प्राचार्यैः अभिहितम् अन्नो वि य एसो, पंचसया होति नयागं ( विशेषा. २२६४ ) एक अन्य आदेश भी है, जिससे नय के पाँच सौ भेद होते हैं ||२० ॥ पद्यानुवाद : समभिरूढ़ तथान्य नयादि को, यदि करे युत शब्दनयादि में । तब नयादि समन्वित पांच हैं, प्रतिशत क्रम से शत पांच हैं || २० ॥ भावानुवाद : मतान्तर से विभिन्न प्राचार्यों का एक मत यह भी है कि समभिरूढ़ नय तथा एवंभूत नय जो शब्दनय के पूर्ववर्ती नयविमर्शद्वात्रिंशिका - ५३

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