Book Title: Nayvimarsh Dwatrinshika
Author(s): Sushilsuri
Publisher: Sushilsuri Jain Gyanmandir

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Page 76
________________ अन्वय : 'नगमादि चतुर्नयाः वै द्रव्यास्तिके भान्ति, ऋजुसूत्रकान्ताः शब्दादयः ते चरमे त्रयोऽपि पर्यायपूर्वास्तिकवर्तिनः स्युः' इत्यन्वयः । व्याख्या : अत्र नयानां वर्गीकरणं कृत्वा व्याख्यायते। अमी सप्तापि नयाः द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकयोः अन्तर्भवति । प्रथम नैगम-संग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्राः चतुर्नयाः द्रव्यास्तिके सामान्यांशग्राहके द्रव्याथिके च शब्द-समभिरूढवंभूताः नया: त्रयसंख्यका: पर्यायपूर्वास्तिके पर्यायास्तिके विशेषांशग्राहके पर्यायास्तिकाख्ये नये स्युः भान्ति अन्तर्भवन्ति सर्वज्ञविभुश्रीतीर्थंकरभगवन्तानां देशनायां सामान्य-विशेषप्रतिपादिका दृष्टि: भवति अर्थाद् विश्वस्य समस्तपदार्थाः सामान्यविशेषमूलकाः भवन्त्येव इति निश्चितं सत्यं नये प्रतिपादितम् ।।२१।। भावानुवाद : यह विश्व पदार्थों के समुदाय से व्याप्त है। हमें जितने भी पदार्थ दिखाई देते हैं वे एक दूसरे से भिन्न हैं, किन्तु सर्वथा भिन्न भी नहीं है तथा सर्वथा समान भी नहीं है। इनमें साम्य भी है और असाम्य भी। इसी दृष्टिकोण से प्रत्येक पदार्थ दो विभागों में विभक्त किया गया है। नयविमर्शद्वात्रिशिका-५५

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