Book Title: Nayvimarsh Dwatrinshika
Author(s): Sushilsuri
Publisher: Sushilsuri Jain Gyanmandir

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Page 71
________________ शुद्धाः विशुद्धेन अत्र सूक्ष्मार्थः पूर्वनयापेक्षया उत्तरः प्रकृष्टरूपेण प्रस्ति विशुद्धरूपेण भवति । यथा नैगमो स्थूलः, नैगमापेक्षया संग्रहनयः न्यून एभिः क्वचित् तुसामान्यः क्वचित् असामान्यः । एकैकरूपस्य एकैकस्वरूपस्य नयस्य शतं प्रभेदाः शतसंख्यकाः भेदाः भवन्ति । तस्मात् कारणात् नयाः सप्तशतानि भवन्ति । अमी सप्तापि नया: सप्तशतसंख्यकाः सन्ति ।। १६ ।। पद्यानुवाद : सातों यही है नय सूक्ष्मरूप, है पूर्व से उत्तर ही विशुद्धः । एकैक की है शत भेद संख्या, है सात सौ भेद सभी नयों का ||१६|| भावानुवाद : उत्तरोत्तर नयों की सूक्ष्मता का निरूपण करते हुए कहते हैं कि पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तर-उत्तर नय सूक्ष्म ( विशुद्ध ) होते चले हैं । सब से स्थूल रूप से विषय का प्रतिपादन करना नैगम नय का लक्षण है, क्योंकि नैगम नय गौणता तथा प्रधानता के भावों को ग्रहरण कर सामान्य तथा विशेष का ग्रहण करता है अर्थात् जब सामान्य का ग्रहण करता है तो विशेष को गौण रूप से रखता है तथा विशेष का ग्रहण करता है तो सामान्य को गौणता प्रदान नयविमर्शद्वात्रिंशिका - ५०

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