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कहा है कि
जावंतो वयरणपहा, तावंतो वा नया विसद्दामो। ते चेव य परसमया, सम्मत्तं समुदिया सवे ॥
[विशेषावश्यकभाष्य-२२६५ ] वचन के जितने भी प्रकार-भेद हो सकते हैं उतने ही नय के भी भेद हैं। वे पर सिद्धान्त रूप हैं और सब मिलकर सम्यक् जिनशासन रूप हैं।
इस कथन के अन सार यह कहना पड़ेगा कि नय के अनन्त भेद हो सकते हैं। स्थूल रूप से नय के कितने भेद हो सकते हैं ? इस प्रश्न के प्रत्युत्तर में जैन दर्शन के समर्थ विद्वान् जैनाचार्यों ने यह बतलाने का विशेष प्रयत्न किया है।
नय का तात्पर्य है विचारों में वर्गीकरण कर समीक्षा दृष्टि से सोचना कि विश्व की कोई ऐसी वस्तु नहीं या कोई ऐसा पदार्थ धर्म नहीं जो व्यावहारिक रूप से, व्यष्टि के स्वरूप से या समष्टि के रूप से अथवा आध्यात्मिक स्वरूप से इन सात नयों से पृथक् हो । जिज्ञासा सात प्रकार की होती है। इसलिए प्रश्न-प्रत्युत्तर (शंकासमाधान) के भी सात ही भेद माने गये हैं।
इन सात नयों के अतिरिक्त कोई ऐसा नहीं है जो जिज्ञासामूलक हो या समाधानमूलक हो ।
नयविमर्शद्वात्रिशिका-६