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भावनिक्षेप को ही स्वीकार करते हैं । यथा - एक शब्द अनेक प्रयोजनों तथा अनेक प्रसंगों को लेकर अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है । सायंकाल हो गया है । यह कथन अनेक प्रसंगों में अनेक अर्थ व्यक्त करता है | श्रमण एवं श्रमणी वर्ग तथा श्रावक एवं श्राविका वर्ग के लिए इसका अभिप्राय है कि प्रतिक्रमण करने का समय हो गया है । मन्दिरों में आरती उतारने का समय हो गया है | श्रमिक वर्ग समझते हैं कि अब काम से छुट्टी हो गई है ।
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प्रत्येक शब्द नाम, स्थापना, द्रव्य तथा भाव रूप चार अर्थ तो रखता ही है । ये विभाग ही न्यास हैं या निक्षेप हैं । इन चारों में ऋजुसूत्र नय मात्र भावनिक्षेप को ही मानता है । ऋजुसूत्र प्रतीत पर्याय को स्वीकार ही नहीं करता है, क्योंकि वह विनष्ट हो गई है । भावी पर्याय को भी नहीं स्वीकारता, क्योंकि वह अभी अनुत्पन्न स्थिति में होने से प्रमाण के योग्य ही नहीं है । केवल वर्त्तमान में जो पर्याय स्थित है उसे ही ऋजुसूत्र स्वीकार करता है ।
'भवतीति भावः' अर्थात् बर्त्तमान काल में जो पर्याय अस्तित्वरूप में विद्यमान है उसी को ग्रहण करनेवाला ऋजुसूत्र नय भावनिक्षेप का ही ग्राहक है । इसी तरह आगे के शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ये तीन नय भी ऋजुसूत्र की भाँति भावग्राही होने से भावनिक्षेप को ही स्वीकारते
नयविमर्शद्वात्रिंशिका - ३५