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शब्दनय किसी भी प्रकार की भिन्नता नहीं मानता। यद्यपि काल, कारक, लिङ्ग तथा उपसर्ग आदि के भेद से अर्थभेद अवश्य मानता है। अर्थात् एक शब्द भूत, भविष्य तथा वर्तमान के कालभेदों से अर्थ में भिन्नता रखता है। विचारों की गूढ़ता के कारण ही यह भेददृष्टि है। 'शब्दभेद से अर्थभेद नहीं होता' यह शब्दनय का मूल सिद्धान्त है।
शब्दनय अनेक पर्यायवाची शब्दों द्वारा कथित अभिधेय को एक हो पदार्थ मानता है । जैसे कुभ, कलश और घट पर्यायवाची शब्द हैं, किन्तु ये अनेक शब्दपर्याय एक ही घट पदार्थ को अभिव्यक्त करने वाले हैं। अर्थात इन तीनों का अर्थ घट रूप एक ही पदार्थ है। रही काल, लिंग तथा कारक या उपसर्गादि से अर्थ की भिन्नता ।
(१) कालभेद से अर्थभेद, (२) लिंगभेद से अर्थभेद, (३) कारकभेद से अर्थ भेद तथा (४) उपसर्गभेद से अर्थ भेद की जितनी भी परम्पराएँ प्रचलित हैं, वे सब शब्दनय के अन्तर्गत ही अन्तनिहित हैं।
शब्दशास्त्र का सम्पूर्ण विकसित स्वरूप शब्दनय की आधारशिला पर ही अवलम्बित है ।।१४।।
नयविमर्शद्वात्रिशिका-३८