Book Title: Nayvimarsh Dwatrinshika
Author(s): Sushilsuri
Publisher: Sushilsuri Jain Gyanmandir

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Page 46
________________ भावानुवाद : 'हे वत्स ! वनस्पति लामो।' किसी पिता द्वारा अपने पुत्र को ऐसा आदेशात्मक संकेत करने पर क्या वह पुत्र कुछ भी भिन्नतः पृथक् अाम्रादि या अन्य फल विशेष ला सकता है ? कभी नहीं, क्योंकि विशेष अाम्रादि लाने के लिये मात्र वनस्पति कहने पर वह कदापि नहीं ला सकता। इसलिये विशेष धर्म के बिना सामान्य धर्म व्यर्थ ही है अर्थात् निरर्थक है । अब यदि वनस्पति लेकर प्रायो यह कहा गया तो वनस्पति कहीं न कहीं विशेष रूप में सत्तात्मक तो अवश्य है । सामान्यरूप में वनस्पति कहाँ प्राप्त होती है ? हम यहाँ जिज्ञासा कर सकते हैं कि क्या प्राम, जामुन या कोई वृक्षविशेष विशेषों से भिन्न है ? यदि इन्हें विशेष से भिन्न मान लें तो वनस्पति में इनका अभाव तर्कसंगत होगा, फिर घट-पटादिवत् वनस्पति अवनस्पति स्वरूप सत्तावाली होगी। इसलिये व्यवहारनय सामान्य रहित विशेषों को ही ग्रहण करता है । कहा है कि - "नस्थि विशेषऽत्थंतरभावानो सो खपुप्फ व ॥" [विशेषा० ३५] विशेष से भिन्न होने के कारण वह आकाश-पुष्प की भांति अविद्यमान है ।।६।। नयविमर्शद्वात्रिशिका-२५

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