Book Title: Nayvimarsh Dwatrinshika
Author(s): Sushilsuri
Publisher: Sushilsuri Jain Gyanmandir

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Page 48
________________ आवश्यकः । अर्थात् विशेषैरेव सिद्धिः जायते, न तु सामान्यैः ।।१०॥ पद्यानुवाद : [ उपजातिवृत्तम् ] पट्टी व्रणों में चरणे प्रलेप, नेत्रेऽञ्जनं वस्तु सदा प्रसिद्ध । लोके विभिन्नावसरे सदा या, विशेष से युक्त प्रयोग होगा ॥१०॥ भावानुवाद : ___ जब हम लोक-व्यवहार में "जख्म (घाव) पर पट्टी बाँध दो," "पैर पर लेपन करो," "नेत्र में अंजन लगायो,' इस प्रकार की विभिन्न क्रियाओं हेतु अपना लौकिक व्यवहार प्रयोग करना चाहते हैं, अपने अर्थ की पूत्ति करना चाहते हैं, तो हमें यह पूति सामान्यधम से नहीं होती। सामान्य इन विशेषताओं को कहने में अपना अभीप्सित सिद्ध करने में सक्षम नहीं होता। इसके लिए तो विभिन्न ही पूर्ति करते हैं अर्थात् विशेषों के द्वारा ही सिद्धि होती है, सामान्य के द्वारा सिद्धि नहीं होती। यदि किसी औषधिवाले के यहाँ से हमें विभिन्न रोगों की औषधियाँ (दवा) प्राप्त करनी है तो उस रोग के निवारण का विशेष धर्म जिस औषधि में है उसी के नाम नयविमर्शद्वात्रिशिका-२७

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